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________________ 154. श्रीशान्तिनाथ चरित्र। "स्वामी! यदि मैं आपका कामही न कर सका, तो फिर आपका सेवक किसलिये कहलाया.?" तब राजाने कहा, "हे कीर्तिराज ! यदि तुमः मेरे सच्चे सेवक हो, तो अपने भाई देवराजका सिर उतार लाओ। यह सुन, “बहुत अच्छा," कह कर बह राजमन्दिरसे बाहर हुआ और कुछ देर तक टालमटोल कर, लौट आया / तदनन्तर उस धीर पुरुषने राजासे कहा “हे नाथ ! रात बीत चली है, इसलिये सभी पहरेदारोंके . साथ-साथ मेरे तीनों भाई भी जगे हुए हैं। इसलिये मैं मौका पाकर . किसी और समय आपका काम कर दूंगा।" यह कह उसने भी समय बितानेके इरादेसे राजाको एक कथा सुनायी। वह इस प्रकार है,___ "इसी भरतक्षेत्रमें महापुर नामक नगरमें शत्रुञ्जय नामके एक राजा रहते थे। उनकी रानीका नाम प्रियङ्ग था। एक बार किसी विदेशीने राजाको एक अच्छी नसलका घोड़ा: भेंट में दिया। उस घोड़ेको देखकर राजाने विचार किया,-"रूपसे तो यह घोड़ा बड़ा अच्छा मालूम पड़ता है ; परन्तु इसकी चाल कैसी है, यह भी देखना चाहिये। कहा है, कि-. "जवोश्वशक्तेः परमं विभूषणं त्रपांगनायाः कृशता तपस्विनः। द्विजस्य विद्यैव मुनेरपि क्षमा, पराक्रमः शस्त्रबलोपजीविनाम् // 1 // " अर्थात् ---"अश्वकी शक्तिका श्रेष्ठ भूषण उसकी चाल है, स्त्रीका भूषण लज्जा है। तपस्वीका भूषण कृशता (दुर्बलता) है, ब्राह्मणका भूषण विद्या है / मुनिका भूषण क्षमा है / शस्त्रके बलसे जीविका उपार्जन करनेवालोंका भूषण पराक्रम है।" _ऐसा विचार कर, राजाने उस घोड़ेकी पीठपर : जीन कसवाया और उस पर सवार हो, उसकी चाल देखनेकी इच्छासे उसे चलाया। तुरतही वह घोड़ा हवासे बातें करता हुआ ऐसा दौड़ा, कि सारी सेना - पीछे रह गयी। घोड़े पर सवार राजा सबकी आँखोंके परे हो गये / उस समय उस घोड़ेके व्यापारीने सामन्तोंसे कहा, "मैं उस समय यह कहना भूल गया था, कि इस घोड़ेको विपरीत शिक्षा दी गयी है।" P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust.
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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