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________________ : 140 श्रीशान्तिनाथ चरित्र। और कृपाका आधारभूत था। उसकी स्त्रोका नाम ऋजुका था, उसके गर्भसे उत्पन्न धनदत्त नामक एक पुत्र उस सेठके था, जो बड़ाही पवित्र चरित्र था। सेठका वह बालक कलाओंका अभ्यास करता हुआ बालक• पनसे युवावस्थाको प्राप्त हुआ। एक दिन वह बढ़िया पोशाक पहन मित्रों और बन्धुओंको साथ ले अपने घरसे बाहर हुआ और किसी कामके लिये कहीं चला जा रहा था / इसी समय किसीने उसे रास्तेमें जाते देख, कहा, "यह सेठका बालक धन्य है, जो इस प्रकार मनमानी मौजे उड़ा रहा है।" यह सुन,किसी दूसरेने कहा,-"अरे मूर्ख ! मुफ्तमें इतनी तारीफ़ क्यों कर रहा है ? जो अपने बापके धनपर मौज़ करते हैं, वे तो कुंपुरुष कहे जाते हैं। जो अपनी भुजाओंके प्रतापसे उपार्जन की हुई लक्ष्मीका उपभोग करता है और दान भी देता है, वही प्रशंसाके योग्य है। कहा भी है, कि- .. .: "मातुः स्तन्यं पितुर्वित्तं, परेभ्यः क्रीडयार्थनम् / . पातुं भोक्तुं च लातुं च, बाल्य एवोचितं यतः // 1 // . अर्थात्-'माताका स्तन-पान करना, पिताके द्रव्यका उपभोग : करना अथवा दूसरोंसे क्रीडाके लिये कोई चीज़ लेना, यह बालकोंको ही शोभा देता है / " . . . . . . . . . . . .. .. ', 'उसकी यह बात सुन, उस सेठके लड़केने सोचा,-"यद्यपि ये लोग यह बातें डाहके मारे कह रहे हैं; तथापि बातें मेरे हितकी हैं। अतएव अब मैं देशान्तरको जाकर धन कमाऊँ। तभी सत्पुरुष कह. लाऊँगा, अन्यथा नहीं।" ऐसा विचार कर, उसने अपना विचार अपने मित्रोंपर प्रकट किया। मित्रोंने भी उसके विचारकी प्रशंसा की। सबके पीछे उसने अपने घर जाकर, पिताके चरणोंमें प्रणाम कर, बड़े आग्रहके साथ कहा,---"पिताजी ! यदि आपकी आज्ञा हो, तो मैं धन . कमानेके लिये परदेश जाऊँ।" यह बात सुन, वह सेठ ऐसा दुखी हुआ, मानों उसे घन मार गया हो और बोला,-"बेटा! मेरे घरमें आपही काफ़ी धन है, उसे मज़ेसे खाशो-वों और दान भी दो। तुम्हें P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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