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________________ तृतीय प्रस्तांव। कर, ज्ञान लाभकर, संयम ग्रहण करनेकी इच्छासे दोनोंने ही श्रीजिने.. श्वरको प्रणाम किया। इसके बाद वे घर चले आये। तदनन्तर सेठ माकन्दीने पुत्रको घरका कारबार सौंपकर जिनपालितके साथ श्रीवीर प्रभुके पास आकर दीक्षा ग्रहण की। जिनपालित साधु पिताके साथ कठिन तपस्या करते हुए आत्मकार्यका साधन करने लगा। .. _ जिनपालित-जिनरक्षित कथा समाप्त / यह कथा सुनकर राजर्षि अमरदत्तने श्रीधर्मघोष सूरिसे इस कथा का उपनय पूछा। इसके उत्तरमें गुरुने कहा,- " उस सेठके दोनों पुत्रोंके स्थानमें इस संसारके समस्त जीवोंको जानो / रत्नद्वीपकी उस देवीको अविरति (माया ) जानो। इसी अविरतिके कारण मनुष्योंको दुःख होता है, वे भव-भ्रमण करते रहते हैं। वह मृतकोंका समूह उसीकी करनीका फल था। शूली पर लटकाए हुए मनुष्यके स्थानमें हितकी बात बतलानेवाले गुरुको जानना। जिसप्रकार उस शूलीपर चढ़े हुए मनुष्यने रत्नद्वीपकी देवीका स्वरूप अपने अनुभव किये हुए अनुसार बतलाया था, उसी प्रकार गुरु भी अविरतिके द्वारा उत्पन्न होनेवाले दुःखको पूर्वमें अनुभव किये अनुसार और आगे जैसा कुछ जीवको अनुभव होगा, वैसा बतला देते हैं। जिस तरह उस शूली पर टंगे हुए मनुष्यने रत्नद्वीपकी देवीका स्वरूप अपने अनुभव किये हुए अनुसार बतलाया था, उसी प्रकार गुरु भी अविरतिके द्वारा उत्पन्न होने वाले दुःखको पूर्व में अनुभव किये अनुसार और आगे जैसा कुछ जीवको अनुभव होगा वैसा बतला देते हैं। जिस तरह उस शूली पर, टॅगे हये मनुष्यने दोनों सेठ-सुतोंको यह बतलाया था, कि शैलक यक्ष तुम्हें इस दुःखसे उबारेगा, उसी तरह गुरु भी संयमको उद्धारकर्ता बतलाते हैं। समुद्रके स्थानमें इसी संसारको समझना / जिसप्रकार, रत्नद्वीपकी उस देवीके फेरमें पड़ा हुआ जिनरक्षित नाशको प्राप्त हुआ,, उसी प्रकार अविरतिके वशमें पड़कर मनुष्य नाशको प्राप्त हो जाता; ' है, ऐसा समझना। जैसे देवीकी बातकी परवा न कर, यक्षके आशा P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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