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________________ कामतृतीय प्रस्ताव / ~ ~~ - ~ ~~- ~ 2015 गयी और उनके शरीरसे अशुभ पुद्गल निकाल. कर, शुभ पुद्गलोका प्रक्षेप कर, उन दोनोंके साथ मनमाने तौरसे विषय-सुख भोगने लगी / यह उन दोनोंको सदा अमृत-फल खानेको देती थी। इसी तरह वे कुछ दिनों तक वहाँ बड़े सुखसे रहे। एक दिन देवोने उनसे आकर कहा,- 'लवण-समुद्रके अधिष्ठाता सुस्थित नामक देवने मुझे आज्ञा दी है, कि तुम इस समुद्रको इक्कीस बार इसके अन्दरसे कूड़ा-कचरा निकाल कर शुद्ध करदो / समुद्र में जो कुछ तृण, काष्ठ और अन्य अपवित्र पदार्थ हो, उन सबको निकाल कर किसी एकान्त स्थानमें फेंक दो।' उनका यह हुक्म पाकर मैं अब वहीं जा रही हूँ। तुम दोनों सानन्द यहीं पड़े रहो। यही सुन्दर फल खाकर तुम अपना पेट भरना / कदाचित यहाँ अकेले रहते-रहते तुम्हारा जी उचट जाये, तो तुम क्रीड़ा करनेके निमित्त पूर्व दिशामें जो वन है, उसीमें चले जाना / उस वनमें निरन्तर ग्रीष्म और वर्षा-ये दो ऋतुएँ छायी रहती हैं / वहाँ दो ऋतुएँ होनेके कारण तुम्हारा जी खूब लगेगा। पर यदि वहाँ भी तुम्हारा मन न लगे, तो मैं आज्ञा देती हूँ, कि तुम उत्तर दिशावाले वनमें चला जाना, जहाँ शरद् और हेमन्त, ये दो ऋतुएँ सदा बनी रहती हैं और अगर यहाँ भी मनको तुष्टि न प्राप्त हो, तो पश्चिम दिशावाले वनमें चले जाना, वहाँ शिशिर और बसन्त-ये दो ऋतुएँ निरन्तर वर्तमान रहती है। घहीं जाकर मनमानी मौज करना ; परन्तु दक्षिण दिशावाले वनमें तो हर्गिज़ न जाना; क्योंकि यहाँ बड़ा भारी दृष्टिविष नामका एक काला सर्प रहता है।" - यह कह, यह देवी चली गयी। उसके जाने बाद वे दोनों सेठके बेटे देवीके बतलाये हुए तीनों वनोंमें आनन्दसे विहार करने लगे। एक दिन उन दोनोंने सोचा,- "देवीने हमें दक्षिण-दिशाके वनमें नहीं जाने के लिये इतना ज़ोर देकर क्यों कहा ? इसका कारण क्या है ?" इस. लिये चलो, एक वार चलकर देखें तो सही, कि वहाँ क्या है ? " ऐसा विचार कर वे सशङ्कित-चित्तसे उस वनमें गये / वहाँ पहुँचते ही P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036489
Book TitleShantinath Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavchandrasuri
PublisherKashinath Jain
Publication Year1924
Total Pages445
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size355 MB
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