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________________ | 74 | उससे नीच गति ही प्राप्त होगी।' किन्तु अग्निभति एवं वायुभति पर उनके परामर्श का कुछ भी प्रभाव न पड़ा। वे समझ गये कि मिथ्यात्व की ओर इनकी प्रवृत्ति है. फिर भी कुछ समय तक द्विज-पुत्रों का चित्त बेचैन रहा। वे सोचने लगे कि क्या किया जाए? हमारे माता-पिता की प्रवृत्ति मिथ्यात्व की ओर लगी है, पर उन्होंने स्वयं सन्तोष धारण कर गृहस्थों के द्वादश व्रत एवं सम्यक्त्व का पालन किया। मुनि, आर्जिका, श्रावक, श्राविका रुप-चार प्रकार के सङ्घको नवधा-भक्ति से दान दिया। उन दोनों ने अष्ट-द्रव्य से जिनेन्द्रदेव की पूजा की एवं अन्त में समाधि-मरण के प्रभाव से स्वर्गलोक को गये। . स्वर्ग में सदा देवाङ्गनाओं के नृत्य होते रहते हैं। द्विज-पुत्रों के जीव स्वर्ग में अपपाद शैय्या पर उत्पन्न हुए। वहाँ नृत्य, गीतादि सुन कर दोनों चकित हुए। यह विचार करने लगे कि वे लोग कहाँ आ गये हैं ? वहाँ का जयजयकारपूर्ण शब्द सुन कर उनकी उत्सुकता बढ़ गयी, पर रहस्य समझ में कुछ न भाया / तत्पश्चात् अवधिज्ञान से उन्हें ज्ञात हो गया कि वे सौधर्म नामक प्रथम स्वर्ग में इन्द्र तथा उपेन्द्र हुए हैं। यह जिन-धर्म पुण्य का माहात्म्य है। यही कारण है कि यहाँ उन्हें शैय्या विमानादि तथा अन्य प्रकार के भोगोपभोग की सामग्रियाँ प्राप्त हुई हैं। भाग्यहीनों के लिए यह स्वप्न में भी सम्भव नहीं। ऐसा विचार कर उन्होंने देवगति में भी प्रसन्नचित्त से जैन-धर्म की शरण ली एवं सम्यकदर्शन धारण किया। अपने पूर्व-जन्म कृत कर्मों का स्मरण कर उनकी जिन-धर्म पर अगाध श्रद्धा हुई। द्विज-पुत्रों ने पाँच पल्य पर्यंत ऐसे बाह्लादकारी सुख भोगे, जिनकी कोई उपमा नहीं दी जा सकती। धर्म के प्रभाव से हो प्राणो को मनोवांछित पदार्थ, सुन्दरता, गम्भीर बुद्धि, वाकपटुता, चातुर्य, चित्त की निर्मलता,धन-धान्यादिक,तीनों लोक की श्रेष्ठतम वस्तुएँ एवं निर्मल यश भी सरलता से प्राप्त हो जाता है। पूर्व-जन्म के सञ्चित पुण्य के प्रभाव को समझ कर सत्पुरुषों को चाहिए कि वे श्रद्धापूर्वक धर्मरूपी अक्षय-धन के सञ्चय में संलग्न हों। सप्तम सर्ग भरतक्षेत्र में स्वर्ग सदृश रमणीक कोशल नाम का एक देश है। स्वर्ग एवं कोशल में समानता इसलिये // है कि स्वर्ग में अप्सरायें हैं एवं कोशल में स्वच्छ जल के सरोवर हैं। यहाँ के उद्यानों में चम्पक, अशोक, Jun Gun Aaradha Trust
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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