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________________ 173 P.P.AC Gurransuri MS पापरूपी वृक्ष को काटने में जो कुठार सदृश तीक्ष्ण हैं, ऐसे व्रतादि का वर्णन करता हूँ। रत्नत्रय धर्म में सर्वप्रथम सम्यकदर्शन जाता है। यह पच्चीस दोषों से रहित, निःशङ्कित, निःकांक्षित आदि अष्ट अङ्गों सहित है। अणुव्रत पाँच प्रकार के हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह-परिमाण। शिक्षा-व्रत चार प्रकार का हैदेशावलाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास एवं वैयावृत्य। गुणव्रत तीन प्रकार के कहे गये हैं-दिग्व्रत, अनर्थदण्ड एवं भोगोपभोग-परिमाणव्रत-इस प्रकार गृहस्थ श्रावकों के लिए सागार-धर्म द्वादश प्रकार के होते हैं। इनके अतिरिक्त रात्रि-भोजन एवं दिवस-मैथुन का त्याग करना चाहिए। षट् कर्म-देव-पूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप एवं दान भी नित्य प्रति करना चाहिये। तीन प्रकार-मद्य-मांस एवं मधु का त्याग भी करना चाहिये / कन्द-मूलादि का आहार करना अत्यन्त निन्द्य है। पुष्प तथा अन्य वस्तुएँ जिनका जैन शास्त्रों में निषेध है, जैसे-घुने धान्य एवं पुष्पित वस्तुओं का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। परोपकार में सदा प्रवृत्ति हो एवं पर-निन्दारूपी पालक से बचना चाहिये / इस प्रकार जिनेन्द्र देव ने उत्तम क्षमा. मार्दव. आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन एवं ब्रह्मचर्य-ये दश धर्मों का वर्णन किया है, जो सत्पुरुषों को संसार समुद्र से पार करा देते हैं। अतः हे द्विज-पुत्रों ! पाप-नाशक-धर्म का सञ्चय करो। यही सार वस्तु है।' मुनिराज द्वारा धर्म का स्वरूप सुन कर अग्निभूति एवं वायुभूति दोनों द्वित-पुत्रों ने अपने माता-पिता के साथ गृहस्थ धर्म स्वीकार कर लिया। उन्हें जिन-भाषित सम्यकत्व प्राप्त कर अतीव हर्ष हुआ। यह ठीक ही है, धर्मरूपी रत्न प्राप्त कर किसे प्रसन्नता नहीं होगो? अमृत पान से सब को सन्तोष होता है। उस समय द्विजपुत्रों की कुछ लोग प्रशंसा करने लगे एवं कुछ लोग उनके पूर्वाचरण की निन्दा। वे मुनिराज को नमस्कार कर अपने वासस्थान को लौट गये। जिनेन्द्र भगवान के चरणों में तथा जिन-धर्म में लीन हो वे सख से रहने लो। जिन चैत्यालयों में आयोजित धर्मोत्सवों एवं गुरु-वन्दना में दोनों द्विज-पुत्रों को अग्रगण्य स्थान प्राप्त हुला, किन्तु उनके माता-पिता मिथ्यात्व परिणति के प्रभाव से जैन-धर्म से उदासीन हो गये। एक दिन उन्होंने पुत्रों को बुला कर कहा- 'पुत्रों ! वेद मार्ग के विपरीत जैन-धर्म का पालन करना अनुचित है। उस समय तो ऐसा अवसर ही आ गया था कि अनिच्छा होते हुए भी जैन-धर्म ग्रहण करना पडा था। किन्तु अब तो कार्य सिद्ध हो गया है। अतः जैन-धर्म के पालन की अब आवश्यकता नहीं रही, क्योंकि 755 Jun Gun Aaradhak Trust /
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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