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________________ - - P.P.AC.GunrathasunMS. - के तुल्य है तथा संसार-रूपी वन को दग्ध करने के लिए दावानल के सदृश हैं। आप मोक्ष फल के अभिलाषी केवलज्ञानरूपी नेत्र को धारण करनेवाले तथा स्याद्वाद-वाणी के प्रवर्तक हैं। आप धर्म-तीर्थ के स्वामी तथा मोक्ष-पद प्राप्त करनेवाले हैं। इसलिये माप को मेरा अष्टांग नमस्कार है। आप संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, || अज्ञान एवं भयरूपी समुद्र के पारङ्गत हर्ता हैं, अनन्त वीर्य के धारक हैं / इस प्रकार आप को मेरा विनयपूर्वक | प्रसाम है। आप हो शान्तिकर्ता शङ्कर हैं, पाप के हर्ता महादेव हैं। आप ही भव-भवान्तर के सञ्चित पाप-पुओं का नाश करनेवाले हैं। केवलज्ञान के मूर्ति-स्वरूप आप के चरणों में नमस्कार है। आप जब माता के गर्भ में आये, उस समय रत्नों को अविरल वर्षा हुई थी। अतः आप हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) हैं। आप ही लोक में व्याप्त विष्णु हैं / आप भक्तजनों को मनोवांछित फल देनेवाले कल्पवृक्ष के समान हैं / हे जिनेन्द्र! आप को नमस्कार है।' विभिन्न प्रकार से श्री सीमन्धर स्वामी का स्तवन कर नारद द्वादश-सभा में मनुष्यों की ओर जा कर बैठे। किन्तु वहाँ का दृश्य उन्हें बड़ा विचित्र प्रतीत हुआ। यहाँ बड़े दीर्घकाय पांच सौ धनुष तक की उच्चतावाले मनुष्य बैठे थे। नारद ने सोचा इनकी तुलना में मेरी देहयष्टि अत्यन्त लघु है, क्योंकि मेरी देहयष्टि केवल दश धनुष प्रमाण ही उच्च है / कहों इनके नीचे विचूर्ण (पिस) न हो जाऊँ। ऐसा विचार कर नारद श्रीसीमन्धर स्वामी के सिंहासन के तले जाकर बैठ गये। जिनेश्वर के सम्मुख जो चक्रवर्ती आसीन था, कौतूहलवश उसने | नारद को उठा कर अपनी हथेली पर ले लिया। वह विचारने लगा-'वस्तुतः यह हैं कौन, किस योनि का कीट है ? आकार में तो मनुष्य जैसा ही प्रतीत होता है।' इस प्रकार विचार करते हुए भी चक्रवर्ती का संशय इसलिये जाता रहा, क्योंकि जब वह जिनेन्द्र के सिंहासन के तले बैठा है, तो कुछ भी हो संशय निवारण करने के लिए स्वयं त्रिलोकपति विराजमान हैं। फिर भी उसने संशय निवारण के उद्देश्य से श्रीसीमन्धर स्वामी को नमस्कार कर जिज्ञासा की-'हे भगवन् ! मुझे एक संशय हो गया है।' आप ने चार गति बतलाई हैं'देवगति, मनुष्यगति, तियंञ्चगति एवं नरकगति। इनमें यह जीव किस गति का है ?' भगवान की दिव्य-वाणी खिरी-'हे राजन् ! यह भरतक्षेत्र का मनुष्य है। उस लोक संसार में यह सुविख्यात एवं बड़ा विद्वान भी है। इसे लोग नारद कहते हैं / नारायण श्रीकृष्ण से इसकी अमित्र मित्रता है।' श्री जिनेन्द्र भगवान का कथन सुन कर चक्रवर्ती ने फिर पूछा-'क्या भरतक्षेत्र में ऐसे ही मनुष्य होते हैं। मैं ने तो इसे कीट समझा था, इसो
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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