________________ 43 PP.AC.GuranasunMS. | उस पर्वत पर खदिरा नाम की एक अटवी थी, जो सघन वृक्षों से संकीर्ण हो रही थी। उसके चारों ओर काँट एवं तीक्ष्ण पाषाण खण्ड फैले हुए थे। गोखरू के काँटों की भी वहां कोई कमी नहीं थी। इंगुदी, खदिर, बिल्व, धव एवं पलाश जाति के वृक्षों के अतिरिक्त विष-वृक्ष भी लगे हुए थे। उस विकट अटवी में हिंसक पशुओं का निष्कंटक साम्राज्य था। वे स्वतन्त्रतापूर्वक उसमें विचरण करते थे। वहाँ सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि क्रूर जीवों को देख कर यमराज को भी भय उत्पन्न हो जाता था। उस दुष्ट दैत्य ने बावन हस्त प्रमाण लम्बी एवं पचास हस्त प्रमाण विशाल शिला के तले उस शिशु को दबा दिया। फिर शिला को उसने अपने पैर से भी दबाया कि शिशु पूर्णतः विचूर्ण हो जाए। तब उस दैत्य ने कहा- रे दुष्ट ! तू ने पूर्व में निन्द्य कर्म किये थे, जिनका यह दुष्फल प्राप्त हुआ है। इसमें मेरा कोई दोष नहीं वरन् यह तेरे अपराधों का ही प्रायश्चित्त है। इतना कह कर दैत्य ने वहाँ से प्रस्थान किया। आचार्य का कथन है कि ऐसा घोर उपसर्ग होने पर भी शिशु की मृत्यु नहीं हुई। ठीक ही है, घोर आपत्ति भी पुण्यात्मा को त्रास नहीं पहुंचा सकती। पुण्य के माहात्म्य से दुःख भी सुख के रूप में परिवर्तित हो जाता है। शिशु के जीव ने पूर्व-भव में ध्यान-जप-तप आदि अनुष्ठान किये थे, इसलिये वह तद्भव मोक्षगामी हुआ था। इतनी विशाल शिला के तले दबने पर भी उसे कष्ट का कोई अनुभव नहीं हुषा। सत्य तो यह है कि वन हो अथवा नगर सभी स्थानों पर पूर्वोपार्जित पुण्य जीवों की रक्षा करता है / फलतः / शत्रु-मित्र कोई भी उसका अनिष्ट नहीं कर सकता। परम कारुणिक सूर्य का उदयाचल पर बागमन हुआ। वह इसलिये कि देखें तो वह दुष्ट दैत्य कहीं सुकुमार शिशु का अनिष्ट तो नहीं कर गया। विशाल शिला के तले भाराकान्त उस अबोध शिशु की क्या बाशा हुई, उसका अब मागे वर्णन करते हैं। जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में विजयार्द्ध नाम का एक विज्ञाश पर्वत है। उसके दक्षिण में इन्द्रपुरी की भांति शोभायुक्त मेघकूट नाम का एक नगर था। वह मगर धन-धान्य से सम्पर्श तथा जिन-चैत्यालयों से सुशोभित था। वहाँ सर्वगुरुसम्पन्न कालसंवर नामक विद्याधर राजा शकता, की। पत्नी का नाम कनकमाला था, जो परम गुणवती एवं अन्दरी थी। राजा अपनी सभी के साथ सुखपूर्वक समय व्यतीत करता था। एक समय की घटना है कि वह अपनी पत्नी के साथ विमान में बैठ कर बीड़ा के लिए निकला। बनेक रमणीक देशों एवं वन-प्रांतरों में क्रीड़ा करते हुए वे उसी तक्षक पर्वत पर जा पहुँचे-जहाँ Jun Gun Aah Trust