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________________ PPA C MS साक्मणा का अपूर्व प्रसन्नता हुई। उसने विचार किया कि मैं प्रत्येक दिन भित्र-भिन्न जिन-मन्दिर में वन्दना / करूँगी एवं अपनी मानव पर्याय को सफल करूँगी। __बड़ी चहल-पहल में श्रीकृष्णनारायण अपने महल में पधारे। सौभाग्यवती स्त्रियों ने श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणी 26 की आरती उतारी। विभिन्न प्रकार के माङ्गलिक गीत गाये गये। जब श्रीकृष्ण अपने महल में पहुँच गये, तो बलदेव भी अपनो हृदय-वल्लमा रेवती के महल में पधारे। रेवतो ने प्रसन्नतापूर्वक उनका आलिङ्गन किया। सत्य ही है, कर्त्तव्य-धर्म पालन के पश्चात् सब को सुख प्राप्त होता है। श्रीकृष्ण ने धन-धान्य से पूरित रथ, पालकी, गज, अश्व, विभिन्न शस्त्रों से सुसज्जित तथा दास, दासी आदि से रक्षित अपना नौखण्डा (नौमञ्जिला) महल रुक्मिणी को सौंप दिया। उनके भोजन, स्नान, आसन, शयनादि नित्य क्रिया का स्थान रुक्मिणी का महल बन गया। उन्होंने अन्य स्थानों पर गमन सर्वथा त्याग दिया। वे मन-वचन-काय से रुक्मिणी में आसक्त थे। विद्याधर-पुत्री सत्यभामा को श्रीकृष्ण का वियोग बड़ा अखरा। वह दिन-प्रतिदिन क्षीणकाय होने लगी। किन्तु उसमें स्वाभिमान इतना प्रबल था कि न तो उसने श्रीकृष्ण से निवेदन किया एवं न अपनी देह की चिन्ता की। नारद को प्रसन्नता का तो पूछना ही क्या था ? श्रीकृष्ण के वियोग से दुःखी सत्यभामा को देख कर वे परम सन्तुष्ट हुए कि उनका मनोरथ सफल हो गया। अब वे प्रतिदिन सत्यभामा के महल में आने लगे! नारद उसका उपहास करते थे—'स्मरण है उस दिन का जब तू ने अपने रूप के अभिमान में मेरा निरादर किया था।' सत्य है अपने शत्रु को दुःस्वी देख कर किसको प्रसन्नता नहीं होती ? रात्रि एवं दिवस में, स्वप्न एवं जाग्रत अवस्था में श्रीकृष्ण सदा रुक्मिणो के प्रेम में विभोर रहते थे। उन्हे अन्य रानियों की सुधि तक न थी। ठीक भी है, सब जगह गुणों का ही आदर होता है। केवल विद्या एवं रूप ही काम नहीं देते। सत्यभामा तो बुद्धिमती एवं उच्च कुल की थी, पर उसकी | भी उपेक्षा कर दी गयी। एक दिन महाराज श्रीकृष्ण रुक्मिणी के संग काम-क्रीड़ा में संलग्र थे। उस समय उनका रुक्मिणी से जो भानन्ददायक वार्तालाप हुभा, उसका वर्णन यहाँ करते हैं। काम-केलि समाप्त होने के उपरान्त रुक्मिणी ने अपने स्वामी से जिज्ञासा की-'हे प्राणनाथ ! मैं ने तो सुना था कि आप सत्यभामा को अपने प्राणों से भी / 26
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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