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________________ 186 | काल में वृक्ष के नीचे योग धारण कर लेते थे। शरद काल में नदी के तट पर एवं ग्रीष्म काल में पर्वतों की शिलाओं पर आसन जमा कर तप किया करते थे। इस प्रकार पापातिचार रोकने के लिए मुनीश्वर प्रद्युम्न ने बाह्य काय-क्लेशादि योग से घोर तपश्चरण किया। उन्होंने श्री जिनेन्द्र भगवान द्वारा वर्णित द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञान का भक्तिपूर्वक अध्ययन किया। वे देह से उदासीन हो गये। रौद्रादि ध्यानों का परित्याग कर वे धर्म-ध्यान एवं शुक्ल-ध्यान में लीन हो गये। प्रतिक्रमण, वन्दना, आदि नियमों का विधिपूर्वक पालन करते थे। ताड़ना, आक्षेप एवं अपमान से उनका क्षमा-शोल हृदय किञ्चित् भी विचलित नहीं होता था। मुनिराज प्रद्युम्न उत्कृष्ट मार्दव गुण को धारण कर अतुलनीय शोभित हुए। प्रचण्ड पराक्रमी एवं महान् योगीवृन्द उनकी वन्दना करते थे। वे तीर्थङ्कर भगवान के उपदेशानुसार उत्तम शौच, उत्तम संयम, तप, त्याग, निर्लोभ आदि धर्मों का पालन करते थे. जो मोक्ष-मार्ग के लिए सोपान एवं संसार-समुद्र के शोषक हैं। जिस प्रकार उन्होंने अपने राज्य काल में शत्रुओं को परास्त किया, उसी प्रकार उनके द्वारा क्षुधा-तृषादि परीषह परास्त हुए, जिन पर विजय प्राप्ति सर्वसाधारण के लिए सरल नहीं है। _____ पहिले जिस प्रद्युम्न के लिए पुष्पों की कोमल शैय्या बिछाई जाती थी, वे अब मुनि अवस्था में तृण (घास) एवं कंकड़ पर शयन करने लगे। जिनकी आताप (उष्णता) निवारण के लिए छत्र एवं चन्दनादि शोतलोपचार का उपयोग होता था, वे पर्वत के शिखर पर सूर्य की तीव्र किरणों का ताप सहन करने लगे। जिसका षट्स भोजन कामनियों के कोमल करों (हाथों) से प्रस्तुत होता था, उन्हें उपवासों को सहन करते देख भला किसे आश्चर्य न होगा ? जिसकी सेवा में राजागण संलग्न रहते थे, वे राज्य-लक्ष्मी का परित्याग कर तपोवन में मुनियों के साथ विहार करने लगे। जिसने विद्याधर एवं भूमिगोचरी राजाओं की कन्याओं के सङ्ग दीर्घकाल तक सांसारिक भोगों का उगभोग किया, उसने उनको त्याग कर दीक्षा ले ली। आचार्य का कथन है कि यह सब देख कर हमें महान् आश्चर्य होता है। यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि जो रसिक कुमार षोडश आभरण धारण करता था, वे द्वादशाङ्ग रूपी आभरण से युक्त वीतरागी बने। नर्तकियों के नृत्य-गीतों में जिसने अपना समय व्यतीत किया हो, वह हिंसक पशुओं के मध्य धर्म-ध्यान में मग्न हो गये। कहाँ कुमार का रथों पर विचरण एवं कहाँ आत्म-ध्यान में लीन प्वी का पृथ्वी पर विहार ? जिसने कामिनियों के Pr 186 Jun Gun Mihak Trust
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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