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________________ 276 R.P.AC.GurmanasunMS. होते हैं; वे हैं-मद्य, मांस, मधु एवं पञ्च प्रकार के उदम्बर फलों का त्याग करना। हाट-बाजार का आटा, कन्दमूलादि तथा मक्खन का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। अहिंसा का पालन गृहस्थ का श्रेष्ठ कर्तव्य है। श्रावकों को चाहिये कि चर्म से निर्मित पात्र में रखे हुए घृत, तैल, जल आदि को ग्रहण न करें। उसी जल का पान करना चाहिये; जो ताजा, स्वच्छ एवं छाना हुआ हो। मिथ्यात्व एवं सप्त व्यसनों को दूर से ही त्याग दें। रात्रि-भोजन एवं दिवस मैथुन त्याज्य हैं / कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र एवं कुधर्म की ओर भूल कर भी दृष्टिपात न करें। देव-पूजा, गुरु-सेवा, स्वाध्याय, संयम, तप एवं दान-ये षट् कर्म प्रति दिन करें। जिनशासन द्वारा वर्णित धर्म त्रैलोक्य में दुर्लभ है।' भगवान का धर्मोपदेश सुन कर देव, मनुष्य सब सन्तुष्ट हुए। वादित्रों का घोष एवं गीतों की मधुर-ध्वनि होने लगी। कितने ही भव्य जीवों ने दीक्षा ले ली। किसी ने मौन, किसी ने सम्यक्त्व एवं किसी ने अणुव्रत ग्रहण किये। भगवान के उक्त उपदेश का जनमानस पर ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि मानव, देव एवं असुर (नारकी जाति के देव) परस्पर मैत्री-सूत्र में बँध गये। वे सब लोग उन्हें नमस्कार कर अपने-अपने स्थान को लौट गये। इस प्रकार भगवान को अगणित जीव नमस्कार करने आते थे एवं अपने जीवन को सार्थक करते थे। कुछ दिवसों के उपरान्त तीर्थङ्कर भगवान विहार करने हेतु रैवतक पर्वत से नीचे उतरे। उनके सङ्ग-सड़ देव एवं असुरों का समूह भी चला। भगवान की भक्ति से प्रेरित होकर वायुनन्दन तृण उड़ाते थे एवं मेघकुमार गन्धोदक की वर्षा करते थे। जिन स्थानों पर भगवान के चरण पड़ते थे, वहाँ देवगण कमलों को रचना कर देते / भगवान के गमन-स्थान से आठ सौ कोस पर्यन्त तक सुभिक्ष रहता। वहाँ किसी का घात नहीं होता एवं न वर्षा या आताप से किसी प्राणी को कष्ट पहुँचता / वहाँ की पृथ्वी शस्य-श्यामला रहती थी। दिशायें निर्मल थीं एवं मन्द सुगन्ध शीतल समीर (वायु) प्रवाहित हो रही थी। इन्द्र की आज्ञा से समग्र देवगण श्री जिनेन्द्र भगवान की वन्दना करने के लिए उन्हें बुलाते थे। भगवान के विहार के समय आगे-आगे मिथ्यात्व को विनष्ट करनेवाला धर्मचक्र चला करता था। श्री जिनेन्द्र भगवान का समग्र विश्व में विहार हुआ। वे कल्याणकारी उपदेश देते जाते थे। वे महाराष्ट, तैलङ्ग, कर्नाटक, द्रविड़, अङ्ग-बङ्ग, कलिङ्ग, शूरसेन, मगध, कन्नौज, कोंकण, सौराष्ट्र, गुजरात, पालन आदि। Jun Gunarak Trust 176
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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