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________________ 156 P.P.AC.GuranasunMS. मित्र राजा थे, उसी प्रकार प्रद्युम्न की सेना में भी वही मित्र राजा दृष्टिगोचर हुए। दोनों सेनायें एक समान माम की हो गईं। दोनों ओर से जुझारल वाद्य बज उठे। बन्दीजन विरुदावली गाने लगे। युद्ध के लिए प्रस्तुत | दोनों सेनाओं को देख कर नगर की नारियाँ परस्पर वार्तालाप करने लगीं। एक चन्द्रमुखी महल के वातायन पर खड़ी थी। उसने कहा—'यह युद्ध यहीं समाप्त हो जाए तो उत्तम होगा।' अन्य ने कहा- 'मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि नारायण श्रीकृष्ण के ग्रह उत्तम नहीं हैं। एक नारी के लिए उत्तम कुलोत्पन्न शूरवीरों का विनाश करवाना क्या उचित होगा?' तृतीय ने टिप्पणी की—'मेरा उत्साही पति रथ पर आरूढ़ है।' चतुर्थ नारी बोल उठी-'वही मेरा पति है, जिसके शीश पर मुकुट शोभा दे रहा है। किसी ने अपनी सखी से कहा-'जिसकी बन्दीजन स्तुति कर रहे हैं, वह मेरा पति है। - दोनों सेनायें परस्पर जा भिड़ीं। पर्वताकार गजराजों के घण्टों एवं हुँकार से कोलाहल मच गया। नगाड़े एवं दुन्दुभी की तुमुल ध्वनि से समस्त दिशायें व्याप्त हो गयों। उस समय ऐसी धूल उड़ी कि समस्त व्योम अन्धकारमय हो गया। शायद वह धूल श्रीकृष्ण का पथ अवरोध करने के लिए ही उड़ी थी कि यह आप का शत्रु नहीं वरन् पुत्र है। किन्तु गजराज के मद-जल ने अपनी वर्षा से उन्हें बैठा दिया। धूल का निवारण कर देने का अभिप्राय यही था कि तुम क्यों व्यर्थ में युद्ध-विराम का प्रयत्न करती हो? यहाँ प्राणियों का वध नहीं होगा। यह तो कौतुक मात्र है। जिस समय दोनों सेनाओं में परस्पर युद्ध हो रहा था, उस समय देव एवं दैत्य आ-आकर व्योम (आकाश) से कौतुक देखने लगे। दोनों ओर की विराट सेनायें देख कर कोई भी भविष्य-वाणी नहीं कर सकता था कि विजय श्री किसका वरण करेगी? प्रद्युम्न ने जैन-धर्म में अपनी अविचल आस्था के प्रभाव से ही भानुकुमार का मान-मर्दन किया, सत्यभामा के वन-उपवन नष्ट किये तथा अपनी माता के आत्म-सम्मान की रक्षा की। अतएव भव्य जनों चाहिये कि वे सदा कल्याणकारी जैन धर्म का ध्यान करें, क्योंकि धर्म से ही समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। एकादश सर्ग यादवों एवं प्रद्युम्न की सेना में जो विकट संग्राम हुआ, उसका संक्षिप्त वर्णन यहाँ किया जा रहा है। Jun Gun Aarada 156
SR No.036468
Book TitlePradyumna Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomkirti Acharya
PublisherJain Sahitya Sadan
Publication Year2000
Total Pages200
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size275 MB
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