________________ P.PAC MS तभी सार्थक होंगे, जब मैं कुमार का प्रेमालिंगन करूँ जिसने ऐसे मनोज्ञ मधुर सौन्दर्य का पान नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ है। बिना कुमार को प्राप्त किये, कोई भी रमणी भाग्यशालिनी नहीं हो सकती।' इस प्रकार कनकमाला अपने विचारों में उलझी रही एवं कुमार उसे प्रणाम कर अपने महल में चला गया। विरह-विदग्धा कनकमाला अनेक प्रकार से निर्लज्ज चेष्टाएँ करने लगी। उसने कामजनित उष्णता को शान्त करने के लिए चन्दनादि शीतल वस्तुओं का उपयोग किया, किन्तु उनसे कामाग्नि शान्त न हो सको। उस विद्याधरी के समस्त अङ्ग शिथिल हो गये / उसने अन्न-जल का परित्याग कर दिया। दूर-दूर के वैद्यों ने उसकी नाड़ी परीक्षा की, किन्तु कोई लाम नहीं हुआ। शनैः-शनैः उसका विरह रोग असाध्य हो गया। एक दिन कालसंवर ने प्रद्युम्न से कहा-'हे प्रिय पुत्र! तेरो माता रोग-शैय्या एर पड़ी हुई है। उसके जीने में भी सन्देह हो रहा है। क्या अभी तक तू ने नहीं देखा?' प्रद्युम्न ने निवेदन किया-'हे पिताश्री ! इस सम्बन्ध में अब तक मुझे कोई सूचना नहीं थी।' ऐसा कह कर वह बड़ी शीघ्रता से कनकमाल! के महल में गया। माता को दुःखी देख कर प्रद्युम्न ने बड़ी नम्रता से प्रणाम किया। उसकी शारीरिक चेष्टायें तथा आकृति को देख कर प्रद्युम्न विचार करने लगा कि यह रोग तो बात, पित्त, कफ-जनित प्रतीत नहीं होता, किन्तु तब किस विकार से वेदना शुरू हुई है एवं वह कैसे शान्त होगी ? प्रद्युम्न इसी उलझन में निमग्न था कि कनकमाला अंगड़ाई लेती हुई उठ बैठी। दास-दासियों को वहाँ से पृथक कर प्रद्युम्न से सुमधुर शब्दों में वह बोली'हे कुमार! यह तो तुम जानते हो हो कि तुम्हारी यथार्थ माता कौन है तथा पिता कौन हैं ?' प्रद्युम्न ने कहा- 'ऐसा प्रश्न क्यों पूछती हैं ? मैं तो समझता हूँ कि आप ही मेरी माता हो तथा महाराज कालसम्वर मेरे पिता हैं।' कनकमाला ने कहा- 'तब तुम अपनी जीवनी की आदि, मध्य तथा अन्त को कथा सुनो एक समय मैं पतिदेव के सङ्ग वन-क्रीड़ा के लिए गयी थी। हमारा विमान तक्षक नामक पर्वत पर पहुँच | कर तम्हारे पुण्य-बल से रुक गया। नीचे उतर कर हम दोनों ने देखा कि एक विशालकाय शिला तुम्हारे प्रबल श्वोच्छावास के वेग से कम्पायमान हो रही है। आश्चर्य से हमने उसे उठाया, तो तुम दिखलाई दिये। मैं ने तत्काल ही तुम्हें उठा लिया तथा मन में निश्चय किया कि युवक होने पर तुम्हें अपना अधीश्वर बनाऊँगी। | यह सोच कर तुम्हें घर ले आयी तथा बड़े स्नेह से तुम्हारा लालन-पालन करने लगी। अब तुम कामकोड़ा के || 126