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________________ 1. 11.7] हिन्दी अनुवाद सिंह-शावक सुमेरुपर चढ़ा हो / राजाके किंकर नग्न और तीव्र खड्ग हाथोंमें लेकर सेवामें उपस्थित हो गये, जैसे मानो धवल छत्र और चलायमान चमर लेकर बहुत-से देवगण सुरेन्द्रकी सेवामें खड़े हों। इस प्रकार विजयलक्ष्मीकी शोभासे सम्पन्न होकर श्रेणिक राजा चल पड़ा। उसे देखकर,अप्सराओंके मन में भी क्षोभ उत्पन्न होता था। किसीने चन्दन लिया, किसीने केशर और किसीने पुष्पमाला / इस प्रकार चलते हुए नगरनिवासियोंके समूहने जिनेन्द्रके चरण-युगलका स्मरण किया / / 9 / / 10. नगरकी बहू-बेटियाँ भी वन्दनाको चलों कोई एक वधू चमेलीके विकसित पुष्पोंको अपने सम्मुख हाथोंमें लेकर हंसकी लीलायुक्त गतिसे चल पड़ी। किसी वधूने राज-चम्पकके पुष्प लिये, और निरन्तर अपने गुरुके चरणोंका स्मरण करने लगी। एक अन्यने हाथोंमें कंकण पहने और मणिमय पात्रमें पूजाके कंकण, अक्षत ( तन्दुल) धारण किये / कोई वधू कदली पात्रमें चन्दन लेकर चली, जैसे वनलक्ष्मी अपनी केलिवृत्त ( क्रीड़ावार्ता ) दिखला रही हो। कोई वधू कलश लिये हुए शोभायमान हुई, जैसे मानो कुम्भ राशिके उदयसे आकाश चमक उठा हो / किसी वधूने मन्दार पुष्पोंका चयन किया और इस प्रकार बालकोंको नियम पालनकी शिक्षा दी। कोई वधू हाथमें लिये नीलकमलसे शोभित हुई, जैसे राजनीति पृथ्वीमण्डल ( राष्ट्र )से शोभित होती है। कोई अपने बढ़ते हुए भोग-विलासका मथन ( मर्दन ) करने लगी और उसके लिये लाये गये आभरणका कोई आदर नहीं किया। कोई अपने शरीरमें कंकमका लेप न कर नपरोंसे रहित पैरों द्वारा चलने लगी। किसीने संसारके परिभ्रमणके अन्त अर्थात मोक्षका ध्यान किया और पास ही चक्कर काटनेवाले अपने प्रिय पतिकी उपेक्षा की। किसीने अपने उज्ज्वल दांत भी नहीं दिखलाये अर्थात् हंसी ठठोली नहीं की और अपने मनमें शान्त और दमनशील मुनिवरका स्मरण किया। इस प्रकार वह राजगृहको नारियोंका समूह अपने पैरोंके पैंजनोंको ध्वनिसे मुखरित होता हुआ नगरसे निकला और अपने मुखकी निःश्वास द्वारा भ्रमरोंको भ्रमाता हुआ मार्गपर घूमता, रमता व चंक्रमण करता हुआ चलने लगा // 10 // 11. जिनेन्द्र-स्तुति (विपुलाचल पर्वतपर पहुँचकर ) राजाने तीर्थंकरके उस समोसरणमें प्रवेश किया जहाँ देव, मनुष्य, नाग और विद्याधर विराजमान थे, और जो कामदेवके प्रहारोंसे बचानेवाला था। वहाँ पहुँचकर राजा श्रेणिकने. महावीर प्रभुको स्मरण करते हुए उनकी स्तुति की और उसके द्वारा अपने जन्मजन्मान्तरके कर्मोंकी धूलिको उन्होंने झाड़ डाला। स्तुति इस प्रकार थी जिनके नख और कुटिल केश स्थित और परिमित हैं ऐसे हे भगवन् , आपकी जय हो। जय हो आपकी जो चरणोंमें नमस्कार करनेवाले जन-समूहकी विपत्तियोंका अपहरण करते हैं / जय हो आपकी जो सच्चे सिद्धान्तयुक्त अपने मतके स्थापक तथा मिथ्यात्वी जनों द्वारा माने हुए सिद्धान्तोंके मदरूपी अन्धकारका नाश करनेवाले सूर्य हैं / जो सुमेरुके समान स्थिर और महोदधि के सदश गम्भीर हैं। जिनके चरण देवोंकी मुकूट-मणियों द्वारा घषित हैं, जो विषम विषयोंके विष वृक्षको भस्म करनेवाली अग्नि हैं, जो नरककी खाईमें भयंकर पतनसे बचानेवाले हैं तथा जो पापोंका उपशमन व जरा-मरणका अपहरण करते हैं। जय हो आपको, जिनकी कोतिके प्रसारसे दशों दिशाएँ उज्ज्वल हो रही हैं, तथा जिन्होंने अपने अनेकान्त नयके बलसे प्रबल कुनयोंका P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036460
Book TitleNag Kumar Charita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadant Mahakavi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1972
Total Pages352
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size337 MB
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