________________ सन्धि 5 . 1. नागकुमारका मथुरा प्रवेश मथुराके बाहर स्थापित नागकुमारका शिविर पटमण्डपों और तम्बुओंसे समृद्ध तथा पंचरंगी ध्वजाओंसे ऐसा शोभायमान हुआ मानो पृथ्वीका अलंकार ही बनाया गया हो। एक निरोगी बाधा रहित तथा फलों, पत्तों, जल, तृण व काष्ठसे भरपूर भूमिमें सेनापति व्याल द्वारा वह शिविर स्थापित किया गया और वहाँ समस्त परिजनोंकी समुचित व्यवस्था की गयो। सेना अपने समस्त कटक सहित जब ठहर चुकी तब नागकुमारने नगरके दर्शनार्थ तैयारी की। वह एक श्रेष्ठ हाथीके कन्धेपर बैठा और कुछ चुने हुए किंकरों सहित यशस्वी रूपसे चला। वह तुरत ही वेश्याओंके मुहल्ले में प्रविष्ट हुआ। नगरको वेश्याओंने उस मकरकेतुको देखा। कोई एक वेश्या संज्ञाहीन होकर सोचने लगी, अरे ये स्तन इसके नखोंसे भिन्न नहीं हुए। कोई वेश्या चिन्तन करती मेरे वे नील केश किसलिए बढ़े जब वे इसके द्वारा खोंचे न गये / कोई वेश्या विचारती इस हारसे क्या लाभ जब इस कुमारने मेरे कण्ठका ग्रहण नहीं किया। कोई वेश्या अपने अधरके अग्रभागको समर्पित करती हुई झुंझलाती, खीझती, तप्त होती और कांपती। कोई वेश्या रतिके जलसे सिक्त हुई, कॅपती, बलखाती, घूमती और रोमांचित होती। तब वीणाकी ध्वनि समान भाषण करनेवाली राजविलासिनी देवदत्ताने कामदेवको अपने हृदयमें स्थापित किया और हाथ जोड़कर प्रार्थना की // 1 // 2. देवदत्ताको प्रार्थनाको नागकुमार द्वारा स्वीकृति देवदत्ताने कहा-हे परमेश्वर मुझपर दया कीजिए। और जिस प्रकार आपने मेरे मनमें प्रवेश किया है उसी प्रकार घरके आंगनमें पदार्पण कीजिए। यह सुनकर नागकुमार वहीं हाथीसे उतर पड़ा जहां उस रमणीका मन्दिर था। देवदत्ताने आसन दिया और नागकुमार उस रात्रि वहीं रहा और वहीं उसने स्नान व भूषणविधि को। उसने यथोचित मात्रामें सरस भोजन किया, जिस प्रकार कवीन्द्र मात्राओंसे युक्त सरस काव्य-रचना करता है। फिर कामदेव नागकुमारने हँसते हुए उस रमणीसे कहा-हे प्रिये, अब में समस्त नगरका भ्रमण करने जाता हूँ, क्योंकि आज ही मुझे यह सारा नगर देख लेना है। इसपर उस उत्तम वेश्याने उत्तर दिया-आप उस दुष्ट, दुश्चरित्र, दुर्वचन राजाके द्वारपर मत जाना तथा वहाँके द्वारपालोंकी पानीदार खड्गकी धारामें मत जा पड़ना। इसपर तरुण राजकुमारने प्रियवचन द्वारा पूछा-हे भद्रे मैं वहां न जाऊँगा किन्तु यह तो बतला कि राजा आने वाले वीरोंका हनन किस कारणसे करता है। इसपर नेत्रोंसे P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust