________________ * श्रीमेहतुगरिविरचित श्रीनामाकराजाचरितम् A श्रीमेरुतुजसूरिविरचित श्रीनामाकराजाचरितम् R ENA सर्वोत्कृष्टं तपः प्रायश्चित्तमेतदुदीरितम्॥ चतुर्धाऽऽधप्रयाणेषु, मार्जारीषु पदोपरि। विशिष्टाभिग्रहा: प्रोक्तं, प्रायश्चित्तं चरन्ति ये॥ समुत्तीर्णासु तछेतुं, पृष्टा: श्री गुरवाऽवयन् // 211 // शत्रुजयादितीर्थेषु, ते मुच्यन्तेऽखिलैनसा // 202 // बालादिहत्या: स्वं भावं, पुण्यप्रत्यूहहेतवें॥ इति श्रुत्वा नृपो दुर्ग-प्रवेशनियम ललौ॥ दर्शयन्ति परं सिध्दि धृवं स्यादेकचेतसः // 212 // आकार्य सर्वलोकं च, तत्रैवाऽतिष्ठिपत् पुरम् // 20 // मत्वैवमेकचित्त: स-नादिदेवस्मृतौ नृपः। स्थापयित्वा गुरूंस्तत्र जग्राहाभिग्रहानिति॥ उपशत्रुजयं प्रापा-ऽनवच्छिन्नप्रयाणकैः॥२१॥ यावद् यात्रां विधायात्रायामि तावत् क्षितौ शये // 204 // दृग्विषयं तीर्थे प्राप्ते, निजसैन्यं निवेश्य सः॥ शुचिर्भूत्वाऽभितीर्थच, पदानि कतिचिद्ददौ // 21 // अब्रह्म दधिदुग्धेच वर्जयामि क्रमादिदम्॥ सिंहासनेऽथ न्यस्याईद्बिम्बं सकलसङ्घयुक्॥ तीर्थ - ब्रह्माऽपत्यहत्याशुद्ध्यै मेऽभिग्रहत्रिकम् // 205 // स्नपयित्वा तत: सर्वपूजाभेदैरपूजयत् // 21 // परस्त्री मांस - मधेच, यावज्जीवमत: परम् // स्वर्णरूप्यवै रत्नस्थालेऽथो मङ्गलाष्टकम् // व्यक्तानि नियमा एते, स्त्री- गोहत्याविमुक्तये // 206 // आलिख्याअष्टोत्तरशतवृत्तैः सानन्दमस्तवीत्।।२१६॥ नियोज्य स्वजनान्नव्य-प्रासादार्थे गुरोगिरा॥ शंक्रस्तवेन वन्दित्वा, सिध्दादिँचाऽथ सद्गुरून् / सिध्दिंगतेऽथ प्रासादे - ऽष्टभिर्मासै: स काञ्चनाम् / नत्या स्वर्णमणिरत्न - मुक्ताभिस्तानवीवृधत् // 217 // श्री आदिदेवप्रतिमां, स्थापयामास सोत्सवम् / / 208 // दत्त्वा यथेच्छमर्थिभ्यो, दानं मिष्टान्नभोजनैः॥ तत्र त्रिकालं सर्वज्ञ - मर्चयन् विधिवन्नृपः॥ अतूतुषत् सर्वलोकान, धार्मिकांश्च विशेषतः // 21 // मासाष्टकेन सम्पूर्णी-चक्रे शेषतपोऽखिलम् // 209 // ततोतिक्रान्तशेषाऽध्वा, पुरस्कृत्य गुरुं नृपः। तीर्थहत्याविनिर्मुक्त: शुभेऽग्लि भरतेशवत्।। रेजे चटन् गिरि मुक्त्यै, प्रस्थानं साधयन्निव // 219 // श्री शत्रुञ्जययात्रार्थ, चचाल गुरुभिः सह // 21 // प्रासाददर्शन पूर्व-मपूर्वोत्सवपूर्वकम् // याचकेभ्यो दददानं, कल्पवृक्षायते स्म सः॥२२०॥ 鐵及營養蕾蠢蠢蠢蠢蠢蠢[12]蠢蠢蠢蠢蠢蠢蠢蠢蠢思