________________ श्रीमरुतुजसूरिविरचित श्रीनामाकराजाचारितम् / स्नात्रपूजाध्वजारांपाऽ मारिम्नाना-शनादिकम्।। सर्व सङ्घपतेर्धर्मकर्माऽष्टाहमपि व्यधात // 22 // तीर्थसेवा चिकीर्भूमानापृच्छयाऽथ विधिं गुरुम् // धर्मध्यानकीनात्मा त्रिकालं पूजयन् जिनम // 222 / / अहोरात्रं पवित्राङ्गो महामन्त्रमसी स्मरन् / साधून साधर्मिकाश्चापि प्रतिपारणकं स्वयम् // 22 // सत्कारयन यथायोग्यं भक्तपानर्यथोचितः।। मासेन दश षष्ठानि निरम्भांसि वितनिवान // 22 // दिन त्रिंशत्तम ब्राह्म - मुहतं तेन दीक्षिता:।। चतस्त्र: पादिकामात्रा, मार्जार्य: कर्बुरा: पुरा // 225 // ब्रह्मादिहत्या: एतास्ता:क्षीयन्ते तपसो बलात् // अनुमायति स प्राग्वद् विदधेऽथाष्टमाष्टकम // 226 // तदन्ते कालमात्रास्ता, वीक्षिता धूसरा: पुनः॥ मत्वा तथैव ता: प्राग्वच्चकार दशमानि षट् // 227 // तत्प्रान्ते मूषिकामात्रा, दृष्टास्ता धवला: पुनः।। ततो विशेषतो ह्रष्टश्चक्रे द्वादशपश्चकम // 228 // ईषन्निद्रान्तरेकोनत्रिंशत्तमे दिन ततः।। नमस्कागन स्मरन्नेव स्वप्नमेकम लोकत।।२२९॥ काऽपि स्फटिकशैलेऽहं, सोपाने प्रथमे स्थितः। केनाप्यतीव वृद्धेन, कृशेन लोठित: परम् // 230 // प्राप्तो द्वितीयं सोपानं तृतीयं च गतस्ततः॥ शैलशृङ्गमथारुहा, मुक्तराशी निविष्टवान् // 231 // प्रभो! फलं किमस्येति, पृष्टा: श्रीगुरवो जगुः / / स्फटिकाद्रिर्जिनधर्मः, सोपानं मानुषो भवः // 232 // अतो धर्माच्चयत्नेनाऽन्तरायस्वल्पकर्मणा।। पात्यमानोऽपि सत्त्वेनाऽच्युतस्तत्वं स्वगमिष्यसि // 23 // ज्ञानं तृतीयं सोपानं नृभवेऽवाप्य केवलम।। सर्वकर्मविनिर्मुक्तो मुक्तराशी निवेक्ष्यसि // 234 // परं तत् प्राक्तनं कर्मच्छद्मस्थत्वान्न बुध्यते॥ अतः पृच्छ विदेहेषु, श्रीमत्सीमन्धरं जिनम् // 235 // प्राप्नोमीदृकथं राज्ञे त्युक्ते श्रीगुरवोऽवदन // भवत्पुण्यप्रभावेन, भवितेत्यचिरादपि // 236 // एतद्विशेषलाभाया-दिदिशे गुरुणा तदा॥ अन्यथा केवलिप्रश्नात् पूर्वविद् बुध्यतेऽखिलम् // 237 // अथान्तरायविच्छित्त्यै पारणाहऽप्युपोषितः॥ ईषन्निन्द्रां गतो यावज्जागर्ति स निशात्यये // 238 // तावद्वीक्ष्य महारण्ये, पतितं स्वं व्यचिन्तयत्।। हा हा! कथं स एवाऽय-मन्तराय: समापतत् // 239 // अथवाऽलं विषादेन, श्री शत्रुअयनायकम् / / नत्वा श्री ऋषभदेव - मादास्ये भक्तपानकम्।।२४०॥