________________ सभ्यान सभायामाभाष्य, विसृज्य च नृपानसौ। सौधान्तः पूजयन् देवान्, ददर्श व्यन्तरं पुरः // 84 / / भावार्थ--त्यार वाद कचेरीमा सभ्यो साथै केटलीक वातचीत करी, राजाओने सन्मानपूर्वक विसर्जन करी, पोताना गृहमंदिरमां देवोने पूजे छ तेवामां पोतानी सन्मुख एक व्यंतर जोयो / / 84 / / पृष्टः कस्त्वमिति क्षोणि-भृता स व्यन्तरोऽवदत् / , तामलिप्त्यामहं नाग-नामा प्राग गोष्ठिकोऽभवम् / / 85 // . भावार्थ-समुद्रपाल राजाए पूछयु के–'तुं कोण छे ?" / त्यारे ते व्यंतरदेवे कह्यु के-हुं तामलिप्ति नगरीमां प्रथम नाग नामनो गोष्ठिक हतो / / 85 // पूर्वजैः कारिते चैत्ये, सारां विदधतो मम / . . कुटुम्बं सकलं क्षीणं, देवस्वेनैव पोषितम् / 86 // . भावार्थ-मारा पूर्वजोए बंधावेला जिनमंदिरनी सार संभाळ करतां देवद्रव्यथीज पोषण पामेलं माझं सपळ / || कुटुंब नाश पायु // 86 // . . .... PP.AC.Gunratnasuri.M.S. Jun Gun Aaradhak Trust