________________ प्रासे शिवं श्रीऋषभे सुतोऽस्य, शत्रुञ्जये श्रीभरताख्यचक्री। अतिष्ठिपद् रत्नमयीं सुवर्ण-पासामध्ये प्रतिमा तदीयाम् // 25 // ना. भावार्थ-श्रीऋषभदेव प्रभु मोक्ष गया बाद तेमना पुत्र श्रीभरतचक्रवर्तीए शत्रुजय तीर्थ उपर मुवर्णमा| सादमां ते प्रभुनी रत्नमय प्रतिमा स्थापन करी // 25 // योऽस्य नाम हृदि साधु वावदिः, क्लेशलेंशमपि नो स सासहिः। // 13 // __ योऽस्य वर्त्मनि मुदैव चाचलिः, संसृतौ न स कदापि पापतिः // 26 // भावार्थ-जे पुरुष पोताना हृदयमा सम्यक् प्रकारे श्रीशत्रुजय तीर्थनुं स्मरण करे छे, तेने लेशमात्र पण दुःख सहन करवू पडतुं नथी, तेमज जे पुरुष आ तार्थना मार्गमा प्रफुल्लित चित्तयुक्त थइ गमन करे छे, ते कदापि संसारपा पडतो नथी-तेने संसारमा भ्रमण करवू पडतुं नथी. // 26 // नाऽतः परं तीर्थमिहास्ति किञ्चिद्, नातः परं वन्धभिहास्ति किञ्चित्। नातः परं पूज्यमिहास्ति किञ्चिद, नातः परं ध्येयमिहास्ति किंचित् / / 27 // भावार्थ-आ तीर्थथी बीजु कोइ महान् तीर्थ नथी, आ तीर्थयी बीजुं कोइ पण अधिक वन्दनीय नयी, आ // तापी बीजु कोइ पण विशेष पूजनीय नथी, अने आतीर्थयी बीजु कोइ पण उत्कृष्ट ध्येय-ध्यान करना योग्य नयी // 27 // PP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust