________________ धाम्म- स्वहस्तलिखितो लेख-स्तव हृल्लेखकारणं // हृदयाचरणं चान्यत् / प्राहीयेतां मृगादि ते / / | // 63 // एवं वार्तयतस्तां च / सर्वांगं तस्य पश्यतः / / विवेकरत्नमात्ति / बलज्ञः स्मरदांनिकः // // 64 // विप्रो दध्यावहो देहो-ऽमुष्या रूपांबुसामरः // यत्रोतु दृशं मनां / बेमामीक्षे न कां. 556 / चन // 65 // जैनबेरनंगस्य / सर्वस्त्रैणशिरोमणेः // न भाग्यमंतरेणास्या / लन्यते संगमः किल.॥ 66 // तन्मन्ये भाग्यवानस्मि / दरिद्रस्येव कामधुक् // श्यं मे स्वयमेवागा-दन्यथा दृ. वळी हे मृगादि! तेणे पोताने हाथे लखेलो कागल तथा तारा हृदयने यानंद करनारं पोताना हृदयतुं याऋषण तने आपवामाटे मोकल्युं बे. // 63 / / एम वात करतांथकां तथा ते. पीन सर्व शरीर जोतांथकां छलने जाणनारा कपटी कामदेवे ते ब्राह्मणY विवेकरूपी रत्न जीनवी लीधुं. // 64 // त्यारे ते ब्राह्मण विचारखा लाग्यो के अहो! श्रानुं शरीर तो रूपरूपी जलना समुड़सर बे, के जेमां बुडेली या मारी दृष्टिने कहामवामाटे मने कोई पण होमी जोवामां श्रावती नथी. // 65 // कामदेवनी जयमल्लीसरखी तथा सर्व स्त्रीनमा शिरोमणि एवी या स्त्रीनो | संगम खरेखर नाग्यविना मळे नहि. // 66 / / माटे धारुं बु के हुँ नाग्यशाली , जो एम न | n Aaradhak