________________ धाम- मयं मूलमिति विजः // राझा बहिर्विहंगेन / नीमादुर्वातितांडवत् // 45 // शीलवत्यपि पेन / / साई | खगृहे प्रहितोत्सवैः // परेषां च दुःप्रधर्षा-दहेखि फणामणिः // 46 // . समयेऽथ समायातः / समुद्रः स विदेशतः // शीललीलायितं श्रुत्वा / वध्वा बाढममोदत // एए | // 4 // तत्र ज्ञानत्रयखनिः / श्रीशीलगुरुरन्यदा // श्रागागौरयशःपूर-पूरिताखिलतलः॥॥ तं नंतु निर्ययौ जुमा-नमात्यादिनिरन्वितः // दिव्ययानेन गीर्वाणै-खि त्रिदिवनायकः // 4 // शमांथी दूर कर्यो. // 45 // अन्योथी न पकमी शकाय एवा सर्पनी फणापर रहेला मणिसरखी ते शीलवतीने पण राजाए नत्सवपूर्वक पोताने घेर मोकली. // 46 // पनी केटलेक समये विदेशथी पावेला समुदत्ते पोतानी स्त्री- ते शीलचेष्टित सांजळीने तेणीनी प्रशंसा करी. // 4 // हवे एक दिवसे निर्मल यशना समुहथी समस्त पृथ्वीतलने नरनारा तथा त्रण झाननी खाणसरखा श्रीशील नामना गुरु त्यां याव्या. // 4 // त्यारे देवोसहित जेम इंद्र तेम मंत्रियादिक सहित राजा दिव्य वाहनमां बेशीने तेमने वंदन करवामाटे यां | थाव्यो. // ४ए / प्रत्यक्ष प्रनाववाळी महान औषधीसरखी शीलवतीसहित समुद्रदत्त पण ते गुरु / Gunratnasunt