________________ धाम्म- लारदं विचदाण // श्यत्यामेव वेलायां / नित्यं मद्गृहमेत्यसौ // 20 // तस्यंस्तस्यानिधातोऽपि / / | जांगुल्या श्व पन्नगः // स दीणविषयाकांदा-विष एवं व्यचिंतयत् // 51 // कुधीरधीतशास्त्रस्या प्यहो केयमन्मम // मित्रस्यापि कलत्रं य-दत्रपोऽहमचीकमं // 55 // यदीमा पूर्वमझास्य-मारए७४ | दस्य परिग्रहे // तन्नाधास्यां मनोऽप्यस्यां / सनुजंगे निधाविव // 23 // हायातं विधिवशा-द्य दि मामेष नोत्स्यते // तत्सर्वस्वापहारेऽपि / जीवंतं नैव मोदयति // 24 // ध्यायन्निति तयोचे स ली के हे विचक्षण! हं धारु बु के ते कोटवाल ने, केमके आज वखते ते हमेशां मारे घेर था. वे . // 20 // गारुमीना नामथी जेम सर्प तेम तेना नामथी पण डरेलो ते ब्राह्मण विषयनी श्वारूपी फेर दीण थवाथी विचारखा लाग्यो के, // 21 // अरे! शास्त्रो नणेला एवा पण मने था कुबुधि क्याथी पेदा थ! के में निर्लङ थश्ने मित्रनी स्त्रीसाथे विषयवांछा करी! // 5 // अरे! मने जो प्रथम खबर होत के था कोटवालनी राखेली ! तो सर्पवान निधानमां जेम ते. म हुं था स्त्रीमां मारुं मन पण धारत नहि. // 53 // हवे कर्मयोगे जो मने ते नहीं थावेलो जाणशे तो मारी सर्व मीटकत बुटीने पण ते मने जीवतो गेमशे नहि. // 54 // एम विचार- | P.P.AC.GunratnasuriM.S.