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________________ दुःख भरा संसार! 269 कौन जाने दुबारा इस भव की प्राप्ति होगी भी? किन्तु प्रयलों की पराकाष्टा के उपरांत भी किये कर्मों का फल तो भोगना ही होगा। साथ ही इन कर्मों का क्षय करने हेतु न जाने कितने समय और भवों तक भवाटवि में भटकना होगा? नहीं... नहीं। अब यहाँ एक पल भी रहना असंभव है। ऐसे दुःख से ओत-प्रोत गृहस्थ जीवन में एक दिन भी व्यतीत करना दुष्कर ही नहीं, बल्कि अति दुष्कर है। और फिर किसे खबर यह जीवन कब काल (मृत्यु) का भाजन बन जाए? __ अतः यही श्रेयस्कर है कि, जीवन पूर्ण होने के पूर्व ही मुझे इस संसार का परित्याग कर देना चाहिए। जीवन के प्रति रहे ममत्व के बंधनों को छिन्न-भिन्न कर देना चाहिए। काया और माया का मोह छोड देना चाहिए। जीवन को सार्थक कर परमार्थ साधने की यही अनुपम घडी है। यदि इस बार चूक गया तो नरक-गति में निरंतर भटकना पडेगा। 'अतः अब एक पल का भी विलम्ब हानिप्रद है।' इस तरह चिंतन करता हुआ भीमसेन राजमहल लौटा। उसके व्यवहार और . वाणी में आमूलचूल परिवर्तन आ गया। वह प्रदीर्घ निद्रा में से यकायक जागृत हो गया। __ अब उसे राजमहल और राजवैभव शूल की भाँति चुभने लगा। हराभरा संसार बंधनों का विराट कारागृह लगने लगा और स्वयं किसी बंदीगृह में अकस्मात् बंद हो गया है, इस तरह का उसे अनुभव होने लगा। ___उसने अपने आत्मिक विचारों से सुशीला को अवगत करते हुए गंभीर-स्वर में कहा : "हे देवी! मुझे यह संसार विषधर नाग की भाँति महा भयंकर प्रतीत हो रहा है। अब तक बहुत-कुछ सहन किया... जान-बूझ कर इसे गले लगाता रहा। किन्तु अब इससे अकथ्य भय लग रहा है। भोग-विलास से लिप्त मैं अपनी काया को अब शुचिर्भूत करना चाहता हूँ। मोह और माया से मलिन हुई आत्मा को ज्ञान-दर्शन एवम् चारित्र से विशुद्ध करना चाहता हूँ। ___स्वामिन्! आप इतने उद्विग्न मत होइए। मेरी स्थिति भी आपसे अलग नहीं है। जीवन के प्रति अब मेरा भी वही दृष्टिकोण है सो आपका है। वास्तव में यह संसार असार है और हमें अपने किये कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। ठीक वैसे ही जब से पूर्वभव का वृत्तान्त सुना है, मेरा भी यहाँ से जी उचट गया है। ___ कहीं चैन नहीं पड रहा है। यह वैभव और विलास, सुख और साहिबी, यश और कीर्ति कंटक की भाँति खुच रही है। पुत्रों के प्रति रही ममता, आपकी माया, राजलक्ष्मी और धन-संपदा का मोह, P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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