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________________ दुःख भरा संसार 267 दुःख भरा संसार! केवली भगवंत श्री हरिषेणसूरीश्वरजी की मंगल वाणी के मृदु स्वर चारों दिशाओं को गूंजारित कर रहे थे। श्रोतावृन्द मंत्र-मुग्ध हो, धर्म-वाणी का अमृत-पान कर रहा था। पर्षदा खचाखच भरी हुयी थी। देव, दानव, तिर्यंच एवम् मानव शांतचित्त से आचार्यदेव का धर्मोपदेश श्रवण करने में तल्लीन थे। ... केवलि भगवन्त ने आज भीमसेन का पूर्वभव कहना आरम्भ किया था। उसमें कथा थी। कथा में कठोर सत्य का प्रतिबिंब था और उक्त सत्य में आत्मा को जागृत करने की अक्षय शक्ति थी। केवली सर्वज्ञ के एक-एक शब्द से भीमसेन का रोम-रोम प्रकम्पित हो उठता था। गुरुदेव ऐसी प्रभावशाली वाणी में उसके पूर्व भव का वृत्तान्त कथन कर रहे थे कि, भीमसेन सहसा उक्त प्रसंगों को अपने समक्ष अभिनीत होते अनुभव कर रहा था। वह तन-मन की सुध-बुध खो कर उनका साक्षात्कार कर रहा था।. ___. ठीक इसी तरह राजमहिषी सुशीला भी अपने पूर्वभव को निहार रही थी। सुशीला के स्वरूप में वह प्रीतिमति के भव का आस्वाद ले रही थी और अपने द्वारा किये गये दुष्कृत्यों का अनुभव कर गहरी वेदना से सिहर उठती थी। जबकि इधर भीमसेन गहरे विचार में खोया : 'अरर! क्या मैं ऐसा था? उच्छृखल एवं उदंड? स्वेच्छाचारी और एकदम निरंकुश...| मन ही मन सोच रहा था। - 'कामजित् के भव में क्या मैंने ऐसा घोर पाप-कर्म किया था? और पाप : हँसते-हँसते... निरी मजाक करने हेतु... जलचर को पानी से बाहर खिंच निकाला, बंदर के बच्चे को उसकी जनेता से अलग किया, पथिक को लूट कर उसकी मणि-मुक्ताएँ छिन ली और तो और मुनि भगवंत की मैंने एक बार नहीं, दो बार नहीं अपितु तीन-तीन बार कदर्थना की। ___ यह सब अघोरी कर्म मैंने बिना किसी कारण के किये... निरुद्देश्य भाव से किये। उसमें उनका कोई अपराध नहीं था। ना ही कोई गुनाह! उफ्, मैंने यह सब केवल अपने आमोद-प्रमोद के लिए किया। किन्तु आज मेरी कैसी अवस्था हो गयी? - प्रीतिमति के प्रेम में लुब्ध हो, मैंने पुत्र तुल्य अपने कनिष्ठ बंधु प्रजापाल से छल कपट किया... उसे धोखा दिया तो इस भव में उसने मेरा राज्य ही हडप कर लिया। अनाथ वैश्य पति-पत्नी को बिना किसी अपराध के निकाल दिया तो, इस भव में मुझे ही निराधार बन, दर दर की ठोकरे खानी पडी! ' 'मुनिराज की अवहेलना की तो तीन-तीन बार संपत्ति से हाथ धोना पडा।' P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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