________________ महारती सुशीला 179 का उत्कृष्ट चारित्र्य तो उसका मन होता है। अतः चंचलतावश ही सही कभी किसी पर पुरूष के सम्बन्ध में जाने-अनजाने कोई विचार उत्पन्न होना संभव है और ईश्वर न करे प्रवेश करने के उपरांत भी यदि कलश स्थिर न रहा तो? व्यर्थ में ही जान संकट में फस जाय और उपर से असती के कलंक से जीवन दुर्भर हो जाये। ऐसा सोच कर नगर की कोई भी पुत्रवती स्त्री जिनालय में प्रवेश करने के लिये तैयार नहीं थी और बल पूर्वक तो किसी को प्रवेश करा नहीं सकते। जबकि शर्त के अनुसार कोई भी स्त्री स्वतः वहां आने के लिये तैयार नहीं थी। इसी तरह समय व्यतीत होता गया। जैसे जैसे समय व्यतीत होने लगा भीमसेन की चिन्ता भी उत्तरोत्तर बढती जा रही थी। स्वामी को व्यग्र और व्यधित देखकर एक बार सुशीला ने पूछा। "आज कल आप इतने उदास क्यों है? . उग्र तपश्चर्या के कारण कहीं आप अशक्त तो नहीं हो गये है?" "ना देवी! ऐसी कोई बात नहीं है। तप के प्रभाव से मैंने सभी परितापों से तो छुटकारा पा लिया। उदासी का कारण तो यह कलश है। क्या इस नगर में कोई शुद्ध शीलवंती नारी है ही नहीं?" परन्तु ऐसी कठिन अग्नि परीक्षा देने की भला हिम्मत कौन करे? सुशीला मन ही मन स्त्री के भय व स्त्री की लज्जा से परिचित थी। व स्त्री-सुलभ संकोच को समझती थी। पल दो पल के लिये मौन धारण कर उसने पुनः कहा चिन्ता न करें स्वामी। देवसेन व केतुसेन को साथ लेकर कल मैं जिनालय में प्रवेश करूंगी। फिर जगत भले ही यह जान ले कि राजगृही नरेश की पली सती है या असती। “नहीं? नहीं! देवी। ऐसा अभद्र न बोलो। कौन कहता है तुम सती नहीं हो? तुम्हारे सतीत्व पर मुझे पूरा विश्वास है और मेरा विश्वास कभी असत्य सिद्ध नहीं हो सकता। मुझे पूर्ण श्रध्धा है कि तुम्हारे प्रवेश से कलश अवश्य ही स्थिर हो जायेगा।" . "मेरा अहोभाग्य है कि आपका मेरे प्रति दृढ विश्वास है। किन्तु आपके विश्वास... श्रद्धा को कसौटी पर कसना मेरा आज कर्तव्य है।" सुशीला ने दृढता पूर्वक कहा। : : अगले दिवस यह समाचार आग की तरह से पूरे नगर में फेल गया। जिनालय का प्रांगण मानव-मेदिनी से उभडने लगा। अधिकतर जिनालय में स्त्रियां ही दृष्टिगोचर हो रही थी। सभी के हाथों में अक्षत व फूल भरे थाल थे। सभी सती का सत्कार करने की तैयारी से ही आई थी। ___ महारानी सुशीला केतुसेन व देवसेन के साथ यथा समय आ पहुँची। उसने दूर से ही वीतराग प्रभु को मन ही मन प्रणाम किया और निज आत्मा को सम्बोधित कर प्रार्थना की : "हे शासन देवता। आज तक मैंने स्वप्न में भी कभी मन वचन और काया से किसी पर पुरूष का ध्यान नहीं किया है। यदि जाने अनजाने में भी कभी सहज भाव से इसमें P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust