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________________ 122 भीमसेन चरित्र उफ्! बेचा भीमसेन! बाहर खड़े खड़े वह सब कुछ सुन रहा था। एक एक शब्द उसके हृदय में काँटे की तरह चुभ रहे थे। उनकी पीडा से वह मर्माहत हो उठा था। भीमसेन मन ही मन सोच रहा था : "आह! मेरे आगमन की ये कितनी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे हैं। आज आएँ! कल आएँ। प्रतिदिन मेरे आने की बाट देख रहे हैं। मन में कैसी कैसी आशाएँ संजो कर समय व्यतीत कर रहे है। और जब इनको ज्ञात हो जायगा कि मैं खाली हाथ लौट आया हूँ तब इन पर न जाने कैसा वज्रपात होगा? बालकों की इच्छाओं पर जैसे बिजली टूटकर गिर पड़ेगी। सुशीला का हृदय विदीर्ण हो जायगा। मेरे आने से तो वह बिलकुल ही निराश हो जायगी। उसके हृदय को गहरा आघात लगेगा। वास्तव में मुझे धिक्कार है। मेरे जन्म को धिक्कार है। मैं पुरूष होकर भी स्वयं का भार उठा नहीं सकता तो परिवार का उत्तरदायित्व कैसे निभा पाऊँगा? मैंने पुरूषार्थ करने में तनिक भी आलस नहीं किया। परंतु भाग्य ने सदैव मेरे साथ आँख मिचौनी ही की है। न जाने किस भव की शत्रुता निकाली है। उसने मुझे प्रायः दुःख ही भेंट किया है। सही अर्थों में ईश्वर ने मेरे प्रति अन्याय ही किया है... मेरी ओर से मुँह मोड़ लिया है। प्रभु ने मेरे सुखों की सदैव उपेक्षा ही की है। मुझे सदैव तिरस्कृत दृष्टि से ही देखा है और साथ साथ मेरे परिवार को भी दुःख देने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी। अब मैं क्या करू? अपने बालकों को कैसे सुखी र? पली को कैसे धीरज बन्धाऊँ? निर्धन व अकिञ्चन जो ठहरा, भला अब किस प्रकार उन्हें शांति प्रदान कर सकता हूँ? अरे रे! ऐसे जीवन से तो मौत अच्छी। हे ईश्वर! अब मुझे अपने दुःखों से छुटकारा दिलवा। ऐसे बदतर जीवन से तो मृत्यु ही वरण कर लूं। दुःख की वेदना अब मैं और सहन नहीं कर सकता और ना ही इससे उबरने का कोई साधन दृष्टिगत हो रहा है। हे विधाता! मेरी तुमसे कर बद्ध प्रार्थना है कि मुझे सत्वर मृत्यु दे दें। भीमसेन के मस्तिष्क में मृत्यु का विचार आते ही वह भागकर नगर के बाहर निकल गया। नगर के सिवान में अतीत की स्मृति स्वरूप एक बड़ा वट वृक्ष खड़ा था। वट वृक्ष को देखकर वह कुछ क्षण के लिये रूक गया। मन ही मन उसने कुछ चिन्तन किया और उसके समीप जा खड़ा हुआ। वट वृक्ष की जटाएँ नाग की तरह नीचे लटक रही थीं। उसने सोचा यह वट वृक्ष ही मेरा कल्याण है इस फानी दुनियाँ से मुझे पार लगा देगा। मेरे गले के चारों ओर लिपटकर ये जटाएँ उसे चीर्ण कर सदैव के लिये मुझे मेरे दुःखों से छुटकारा दिलावेगी। भीमसेनने मन ही मन दुःखी जीवन का अन्त करने का दृढ़ संकल्प कर लिया। अब मृत्यु केवल दो कदम की दूरी पर ही है। यह सोचकर वह अपना अन्त-समय सुधारने की इच्छा से मन वचन व काया से एकाग्रचित्त हो वीतराग प्रभु का स्मरण करने लगा। नमस्कार महामंत्र का भाव पूर्वक स्मरण करने में P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036420
Book TitleBhimsen Charitra Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1993
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size241 MB
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