________________ . ॐ नमो जिनाय यतिधर्मोपदेशः [1] // 1 // भो भव्या ! निजरूपधाम रुचिरं जन्मादिदुःखोज्झितम् , शश्वज्ज्ञानसुखादिपूर्णममलं प्राप्तुं शिवं चेन्मनः / तत्क्षान्त्यादिमुखेऽत्र धर्मदशके शुद्ध विधत्तोद्यममित्येवं जिनराज आप्तविमलक्षानो जंगी पर्षदः // 1 // धर्म करोति यो देही, क्षान्यादिदशरूपकम् / न स भ्राम्यति लोकेऽत्र, रज्जूसप्तद्विकोन्मिते // 2 // धर्म दशविर्ष नैनं चकारेति गतादिकात् / कालादनन्तानावर्तान, भ्रान्तो जन्मान्तकाकुलान् // 3 // धर्मेच्छा दुर्लभा लोके, कामक्रोधादिसल्कुले / तत्रात्महितधर्म-माप्नोति मितजन्मरुक // 4 // स्वप्नेऽपि न स्पृशन्त्येन-मनार्याः कुत्सितान्तराः / आर्यक्षेत्रभवाः केचिन्, नरा अपि तथाविधाः // 5 // आर्यक्षेत्रे कुले शुद्ध, . शुद्धजाती समुद्भवे। आबाल्याज्जायते धर्म, मतिः स्वकुलधर्मगा // 6 // तत्र बुद्धधर्माढयेऽझिनो जन्म कुले भवेद / आबाल्यावबुधर्मेण, रक्तमान्तरमनुते // 7 // अल्पान्येष जगत्यत्र, धर्ममाणि कुलानि च / जाते परत्र धर्माप्तिलभावधी मणेर्यथा // 8 // लव्धे धर्मेऽपि सामन्या, स्वाख्याता दुर्लभो जिनः / ततः श्रीचकूले जाता, स्युर्धर्मेण न संयुताः // 9 // अप्राप्य धर्मस्वाख्यानलब्ध्वा बोधिसम्भवं / जन्तुः कर्मभराकान्तो, विश्वे विश्वेऽत्र भ्राम्यति // 2 // लब्ध्वा बोधि से एवाङ्गी, स्वाख्यातं धर्ममाप्नुयात् / लोके भ्राम्यन् समग्रेऽस्मिन्, योऽनल्प कर्म निर्जरेत // 1 // यद्ययनल्पबन्ध्येव पापमण्वेव निर्जरेत् / धर्मश्रुति विना देही, चित्रमेष बदुक्षयः // 12 // अकामा निर्जरा यावग्रन्धिदेशसमागमम् / यत्रैको कोटिरग्धीनां, शेषोनवावतिष्ठति // 1 // यथाऽन्त्या बससंशुद्धियथाऽन्त्यो या गदक्षयः / यत्नसाध्यस्तथैषाऽत्र, शेषा कोटयपि दुम्क्षया // 14 // शानदर्शनचारित्रैः, क्षयस्तस्याः क्रमादमी गुणा मार्गस्थधामानस्तत्वय्यां साधना हिता // 15 // स एव निर्जरा बही-माश्चर्येणापि साधयेत् / स्वभावात् | संवृणोत्याक्री, हेतून मिथ्यात्वभाविनः // 16 // तथामव्यत्वपाकेन, जीवे भावो भवेसंथा। आयान्त्यनादितो येन पापानि निरुणद्धि सः // 17 // अन्यथा प्रन्थिदेश स, प्राप्नुयान्नैव पूर्ववत् / ततो युक्तं महावन्ध हेल PP.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust