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________________ डॉ. पंकज कुमार जैन, प्राध्यापक जैन दर्शन, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान भोपाल, (म.प्र.) लिखते हैं: “समकित-प्रवेश" एक असाधारण कृति है। इस कृति में जैनधर्म-दर्शन के अति महत्वपूर्ण विषयों की प्रस्तुति आधुनिक और रोचक शैली में की गयी है। इससे जटिलतम विषय भी सरलता से हृदयंगम हो जाते हैं। इस कारण यह उपयोगी कृति प्रत्येक मोक्षमार्गी स्वाध्यायी जीव के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी और घर-घर में शास्त्र की तरह समादृत होगी। इस कृति के लेखक श्री पुनीत जी मंगलवर्धिनी जैनधर्म-दर्शन और अध्यात्म के गहन अध्येता हैं और आपकी विषय प्रतिपादन की शैली अनुपम है। आपने जिस अभिनव शैली में इस कृति का लेखन किया है वर्तमान में उसकी अत्यधिक उपादेयता है। इस हेतु आप बधाई के पात्र हैं। श्री प्रताप शास्त्री,अध्यक्ष-जैन दर्शन विभाग, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थानम् भोपाल, लिखते हैं: 'शास्त्रसंरक्षणे स्व-परहितम्'। “समकित-प्रवेश" पुस्तकमिदं प्रो. पुनीत जैन महोदयस्य समीचीन ज्ञानस्य सुपरिचयं प्रददाति। पुस्तके अस्मिन् चतुर्णाम् अनुयोगानां जैनदर्शनस्य मूल सिद्धान्तानांच शोभनं वर्णनं कृतम्। युवा विदुषः इदं पुस्तकं विशिष्टा शोभना च प्रस्तुतिरूपेण ज्ञानक्षेत्रे राजते। प्रारकाले वर्तमाने भविष्ये च सर्वदा जैनसिद्धान्तानां प्रासंगिकत्वं विलसति। तस्मिन च प्रासंगिकत्वे अनुपमं महनीयं च योगदानं महोदस्य वर्तते। पुस्तकेन अनेन ज्ञान गंगायाः अविरलगतिः सम्पोषिता सम्वर्धिता चेति। अस्मांक जीवने जिनवाण्याः महत्वं सर्वविदितमेव तथा च जिनवाण्याः उपासकेन महादयेन प्रो. पुनीत जैनेन सर्वेषां ज्ञानवर्धनाय हिताय च पुस्तकमिदं विरचितम्। अनेन च तस्य स्वस्य हितमपि निश्चयेन भविष्यति इति मे मंलकामना, मंलवर्धनाम्। अपनी भूमिका के योग्य होने वाले विकारी भावों को जो छोड़ना चाहता है, वह अपनी वर्तमान भूमिका को नहीं समझ सका है, इसलिए उसका ज्ञान मिथ्या है, और जिसे वर्तते हुए विकारी भावों का निषेध नहीं आता परन्तु मिठास का वेदन होता है, तो वह भी वस्तुस्वरूप को नहीं समझा है, इसलिए उसका ज्ञान मिथ्या है। ज्ञानी को राग रखने की भावना तथा राग को टालने की आकुलता नहीं होती। -द्रव्य दृष्टि जिनेश्वर 'मैं ही परमात्मा हूँ' ऐसा निश्चय कर 'मैं ही परमात्मा हूँ' ऐसा निर्णय कर 'मैं ही परमात्मा हूँ' ऐसा अनुभव कर। वीतराग सर्वज्ञदेव त्रिलोकनाथ परमात्मा सौ इन्द्रों की उपस्थिति में समवसरण में लाखों-करोड़ों देवों की मौजूदगी में ऐसा फरमाते थे कि 'मैं परमात्मा हूँ ऐसा निश्चय कर'। “भगवान ! आप परमात्मा हो, इतना तो हमें निश्चित करने दो" ! वह निश्चय कब होगा ? कि जब 'मैं परमात्मा हूँ' ऐसा अनुभव होगा, तब ‘यह (भगवान) परमात्मा हैं' ऐसा व्यवहार तुझे निश्चित होगा। निश्चय का निर्णय हुए बिना व्यवहार का निर्णय नहीं होगा। -गुरुदेवश्री के वचनामृत
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
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