________________ 268 समकित-प्रवेश, भाग-8 स्यात यानि कथंचित (किसी अपेक्षा से) और वाद यानि कथन करना। यानि कि कथंचित (किसी अपेक्षा से) शब्द लगाकर वस्तु का कथन करना ही स्याद्वाद है। प्रवेश : जैसे? समकित : जैसे जनक की अपेक्षा से सीता पुत्री है, राम की अपेक्षा-से पत्नी है और लवकुश की अपेक्षा-से माँ है। प्रवेश : अरे वाह ! इसप्रकार से कथन करने से तो वस्तु का संपूर्ण स्वरूप हर कोण' से समझ में आ जायेगा और सारे झगड़े ही समाप्त हो जायेंगे। समकित : इसीलिये तो कहा था कि जैनी को तो अनेकांत और स्याद्वाद की ही शरण है। इसीलिये जैन शास्त्रों का हर वचन स्यात् पद से मुद्रित होता है। यानि कि किसी अपेक्षा से ही होता है। प्रवेश : कैसे? समकित : जैसे हम अपने दुःखों के लिये हमेशा दूसरों को ही दोष देते रहते हैं तब शास्त्र कहते हैं कि इसमें दूसरों का कोई दोष नहीं है, हमारे कर्मों का ही दोष है। तो फिर हम कर्मों को दोष देने लगते हैं तब शास्त्र कहते हैं कि द्रव्य-कर्म तो जड़ (पुद्गल) हैं, कुछ जानते नहीं, वह हमारे दुःखों का कारण कैसे हो सकते हैं ? हम स्वयं (द्रव्य) ही अपने दुःखों (पर्याय) के कारण हैं यानि द्रव्य स्वयं ही अपनी पर्याय का कर्ता है, पुद्गल कर्म आदि अन्य द्रव्य नहीं। तो हम त्रिकाली ध्रुव अंश को ही अशुद्ध और अपराधी मानने लगते हैं तब शास्त्र कहते हैं कि त्रिकाली ध्रुवं अंश तो शुद्ध और शाश्वत है, निरपराध है। पर्याय ही पर्याय की कर्ता है। प्रवेश : अरे यह तो पहली बार सुना है ! विस्तार से समझाईये ? समकित : आज नहीं कल। कल हमारा विषय षट्कारक ही है। 1.angle 2.solve 3.narration 4.stamped 5.blame 6.cause 7.doer 8.faulty 9.faultless