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________________ समकित-प्रवेश, भाग-1 समकित : पूरे एक हजार वर्ष तक वे वन-जंगल में मौन रहकर स्वयं की साधना करते रहे व एक दिन पूर्ण-आत्मलीनता' हो जाने पर उन्हें अनंत चतुष्टय यानि कि केवलज्ञान आदि की प्राप्ति हो गयी। अब वे साधु से केवली यानि कि अरिहंत हो गये। अरिहंत होते ही उनको तीर्थकर प्रकृति का उदय आ गया और उनके उपदेश के लिए इंद्र के कहने पर कुबेर द्वारा समवसरण की रचना की गयी। समवसरण में भगवान के उपदेश (दिव्य-ध्वनि) के द्वारा भव्य जीवों को सच्चे सुख (मोक्ष) के मार्ग का ज्ञान हुआ। प्रवेश : फिर? समकित : उसके बाद आयु पूरी होने पर वे शरीर आदि को भी छोड़कर सिद्ध हो गये। यानि कि लोक में सबसे ऊपर जाकर मोक्ष में स्थित हो गये व हमेंशा वहाँ ही रहेंगे न चलेंगे न बोलेंगे न खायेंगे-पीयेंगे। प्रवेश : फिर वहाँ रहकर वह क्या करेंगे? समकित : वे वहाँ रहकर हमेंशा, हर समय, अनंत-सुख यानि कि सच्चे व पूर्ण सुख का भोग करेंगे। इसी का नाम तो मोक्ष है। प्रवेश : हमें भी यदि ऐसा सुख पाना हो तो क्या करना होगा? समकित : जो उन्होंने किया। स्वयं यानि कि आत्मा की साधना करनी होगी। प्रवेश : यह स्वयं यानि कि आत्मा कौन है? कैसा है? और आत्मा की साधना किसे कहते हैं ? समकित : यह हम अगली कक्षा में देखेंगे। प्रयोजन तो एक आत्मा का ही रखना। आत्मा का रस आये वहाँ विभावका रस झर जाता है। -बहिनश्री के वचनामृत 1.complete self-immersedness 2.discourse pavilion 3.deserving 4.path 5.seated 6.experience 7.self 8.soul
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
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