________________ 110] [ तर्कसंग्रहः स्मृति-सुख-दुःखानि ] [111 कोटिक होना चाहिए / अतः उन्होंने संशय का लक्षण किया है-'एकधर्मावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपितभावाभावप्रकारकज्ञानं संशयः' / (2) विपर्यय-'मिथ्याज्ञानं विपर्ययः' मिथ्याज्ञान (जो जहाँ नहीं है वहाँ उसे समझना) विपर्यय है। इसे भ्रम भी कहते हैं। जैसे सीप को देखकर 'यह चाँदी है। ऐसा ज्ञान होना विपर्यय है। इसमें अयथार्थ ज्ञान का निश्चय रहता है जबकि संशय में निश्चय नहीं होता है। (3) तर्क-'व्याप्यारोपेण व्यापकारोपः तर्कः' व्याप्य के आरोप से व्यापक का आरोप तर्क है। जैसे--'यदि पर्वत में आग नहीं होती तो वहाँ धूम भी नहीं होता'। वयभाव व्याप्य है और धमाभाव व्यापक / इस तरह तर्क व्याप्तिज्ञान कराने में सहायक होता है। कारिकाबली (137 ) में तर्क का निर्वचन करते हुए कहा है-- व्यभिचारस्याग्रहोऽपि . सहचारग्रहस्तथा। हेतुाप्तिग्रहे तर्कः क्वचिच्छङ्कानिवर्तकः / / अर्थ--व्यभिचार के अग्रहण तथा सहचार के ग्रहण को व्याप्तिग्रहण में कारण माना जाता है, यदि कहीं व्यभिचार की शङ्का हो जाए तो उसको दूर करने वाला तर्क होता है। इस तरह तर्क व्याप्तिज्ञान में होने वाली शङ्गा को दूर करता है। अतः इसका निषेधात्मकव्याप्ति जैसा स्वरूप बनता है-'यदि पर्वत में वह्नयभाव होता तो धूमाभाव भी होता' / यद्यपि यह वाक्यावली व्यतिरेकव्याप्ति जैसी लग रही है परन्तु यह व्यतिरेकव्याप्ति नहीं है। व्यतिरेकव्याप्ति में पूर्ण निश्चय होता है तथा व्याप्ति का ज्ञान सामान्यलक्षण नामक अलौकिक सन्निकर्ष से होता है। इस व्याप्तिज्ञान में यदि कोई संदेह पैदा हो जाये तो उसे तर्क से दूर किया जाता है, अतः तर्क के स्वरूप में 'यदि' पद जोड़ा गया है। तर्क एक सम्भावनामूलक आहार्य ज्ञान है। निम्न उदाहरण से इसे स्पष्ट किया जा सकता है-- ___मान लो किसी व्यक्ति को किसी वस्तु का यथार्थ स्वरूप ज्ञात नहीं है, उसके यथार्थ स्वरूप को जानने की सर्वप्रथम उसमें इच्छा (जिज्ञासा) होती है। पश्चात् उभयकोटिक संशय (यह है अथवा नहीं) पैदा होता है। तदनन्तर विमर्श द्वारा एक का यथार्थ निश्चय होता है। इस तरह संशय के बाद तर्क एककोटिक' यथार्थ निश्चय कराने में सहायक होता है। इसीलिए इसे संशय और विपर्ययसे पृ थक गिनाया जाता है। [स्मृतिः कतिविधाः ? ] स्मृतिरपि द्विविधा-यथार्था अयथार्था घेति / प्रमाजन्या यथार्था / अप्रमाजन्या अयथार्था / अनुवाद--[ स्मृति कितने प्रकार की है ? ] स्मृति भी दो प्रकार की है-यथार्था और अयथार्था। प्रमा ( यथार्थज्ञान ) से उत्पन्न यथार्था है और अप्रमा ( अयथार्थज्ञान ) से उत्पन्न अयथार्था है। व्याख्या---'संस्कारमात्रजन्यं ज्ञानं स्मृतिः' इस प्रकार स्मृति का लक्षण बुद्धि गुण के निरूपण-प्रसङ्ग में बतलाया जा चुका है। उसीके 1) यहाँ दो भेद किए गये हैं। जो स्मृति यथार्थ अनुभव से होने वाले संस्कार से जन्य है वही यथार्था स्मृति है और जो अयथार्थ अनुभव से होने वाले संस्कार से जन्य है वह अयथार्था स्मृति है। इस तरह स्मृति की यथार्थता और अयथार्थता अनुभव की यथार्थता एवं अयथार्थता पर निर्भर है। [17-18. सुखदुःखयोः के लक्षणे ?] सर्वेषामनुकूलतया वेदनीयं सुखम् / सर्वेषां प्रतिकूलतया वेदनीयं दुःखम् / अनुवाद--[१७-१८. सुख और दुःख के क्या लक्षण हैं ? ] जो सबको अनुकूल प्रतीत हो वह सुख है। जो सबको प्रतिकूल प्रतीत हो वह दुःख है।