________________ पक्ष-सपक्ष-विपक्षलक्षणानि ] [85 44 ] [ तर्कसंग्रहः लक्षणम् ? ] निश्चितसाध्याऽभाववान् विपक्षः। यथा तत्रैव नहीं बन सकती है क्योंकि गन्धवान् सभी पदार्थ पृथिवीत्व में ही आ गये हैं। घटादि को दृष्टान्त बनाया नहीं जा सकता है क्योंकि वह महादः। भी पृथिवी होने के कारण पक्ष ही है। जहाँ पृथिवीतरत्व और अनुवाद-[पक्ष का क्या लक्षण है ] जहाँ साध्य का सन्देह हो गन्धाभाव है ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं। जैसे 'यदितरेभ्यो न भिद्यते न वह पक्ष है। जैसे धूमवत्त्व हेतु में पर्वत / [ सपक्ष का क्या लक्षण तद्गन्धवत्, यथा जलम्' (जो पृथिवीतर जलादि पदार्थों से भिन्न है?] जहाँ साध्य का निश्चय हो वह सपक्ष है। जैसे वहीं पर नहीं है वह गन्धवान नहीं है, यथा जल)। इस तरह यहाँ व्यतिरेक-.. (धूमवत्त्व हेतु में) महानस (रसोईघर)। [विपक्ष का क्या व्याप्ति स्पष्ट परिलक्षित हो रही है / अतः यहाँ गन्धवत्त्व हेतु केवल लक्षण है ? ] जहाँ साध्य का अभाव निश्चित हो। जैसे वहीं पर व्यतिरेकि है। अन्य उदाहरण (1) 'जीवच्छरीरं सात्मक, प्राणादि (धूमवत्त्व हेतु में जलाशय / मत्त्वात्, यन्नवं तन्नवं, यथा घट:' (जीवित शरीर आत्मा वाला है, व्याख्या-सद् हेतु में जिन 5 गुणों का होना आवश्यक बतलाया प्राणादि से युक्त होने के कारण, जो प्राणादि से युक्त नहीं है वह गया है उनमें से प्रथम तीन हैं—पक्ष सत्त्व, सपक्ष सत्त्व और विपक्षआत्मावाला नहीं है, जैसे घट)। (2) 'प्रत्यक्षादिकं प्रमाणमिति व्यावृतत्व / अतः प्रश्न है कि पक्षादि किसे कहते हैं? व्यवहर्तव्यं प्रमाकरणत्वात्, यन्नैवं तन्नैवं यथा प्रत्यक्षाभासः'। (3) पक्ष-जिसमें साध्य के मौजद रहने का संदेह हो वह पक्ष 'विवादास्पदम् आकाश इति व्यवहर्तव्यं शब्दवत्त्वात्, यन्नवं तन्नैवं कहलाता है। जैसे 'पर्वतो वह्निमान् धूमवत्त्वात्' इस अनुमिति स्थल में पर्वत पक्ष है क्योंकि वहीं पर 'पर्वत आग वाला है या नहीं यथा पृथिवो'। केवलव्यतिरेकि हेतु में मीमांसकों के अर्थापत्ति प्रमाण का अन्तर्भाव हो जाता है। है' यह संदेह होता है। इस लक्षण के विरोध में कहा जाता है कि हेतु का अन्य प्रकार से भी विभाजन मिलता है, जैसे- साधर्म्य मानो कोई व्यक्ति सो रहा है, अचानक बादलों की गड़गड़ाहट सनहेतु और वैधयं हेतु। सद्हेतु के पांच गुण बतलाये गये हैं कर 'गगनं मेघवत् धनगर्जनश्रवणात्' (आकाश मेघ वाला है क्योंकि (1) पक्षधर्मत्व-पक्ष में रहना, (2) सपक्षत्व-सपक्ष में रहना, मेघ का शब्द सुनाई पड़ रहा है ) यह अनुमिति होती है। यहाँ सोये हुए व्यक्ति के लिए संदेह का प्रश्न नहीं है। अतः न्यायबोधिनीकार (3) विपक्षव्यावृति-विपक्ष में न रहना, (4) अबाधितविषयत्व-- ने 'अनुमित्युद्देश्यत्वं पक्षत्वम्' (जो अनुमिति में उद्देश्य हो अर्थात अन्य बलवत्तर प्रमाण से खण्डित न होना और (5) असत्प्रति जिस धर्मी में अनुमिति की जाए ) लक्षण किया है। दीपिका में भी पक्षस्व-कोई ऐसा कारण न हो जिससे साध्य का अभाव सिद्ध हो / " इसी प्रकार की आशङ्का उपस्थित की गई है जिसका तात्पर्य है जाए। ये 5 लक्षण अन्वयव्यतिरेकि हेतु में आवश्यक हैं। केवला 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः' इत्यादि न्वयि में तृतीय और केवलव्यतिरेकि में द्वितीय के होने का प्रश्न श्रुतिवाक्य (वेद वाक्य) के श्रवण से ही सन्देहरहित आत्मा का ही नहीं है, क्योंकि वहाँ क्रमशः विपक्ष और सपक्ष होते ही नहीं हैं। ज्ञान हो जाने पर भी उसके विषय में अनुमानादि करते हैं तथा [पक्षस्य किं लक्षणम् ? ] संदिग्धसाध्यवान् पक्षः / यथा अन्यत्र भी वह्नि आदि के प्रत्यक्ष हो जाने पर भी अनुमान करते हैं धूमवत्वे हेतौ पर्वतः। [सपक्षस्य किं लक्षणम् ? ] निश्चित सपक्ष-जहाँ हमें पहले से ही साध्य का निश्चय रहता है। साध्यवान् सपक्षः। यथा तत्रैव महानसम् / [विपक्षस्य किं जैसे उक्त अनुमिति स्थल में ही समक्ष है 'रसोईघर'। इस तरह