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________________ सिद्ध-सारस्वत उपाधि प्राप्त की एवं अध्ययन के दौरान अनेक साहित्यिक पुरस्कारों से अपने आपको गौरवान्वित किया। 'होनहार विरवान के होत चीकेन पात' इस उक्ति के अनुसार आपने अपनी वाक् कला लेखन-कला का उत्कृष्ट प्रसाद सभी को वितरित किया व जीवन में 'चरैवेति चरैवेति' इसका निरन्तर पालन किया और विद्या के क्षेत्र में अनेक नए कीर्तिमान स्थापित किए। उदार व्यक्तित्व - श्री डॉ. सुदर्शनलाल जी अत्यन्त उदार व्यक्तित्व के धनी हैं। अतः आपने अपने वैदुष्य का लाभ सहस्रों छात्रों में वितरित किया। आप स्वयं गरीबी के अभिशाप से त्रस्त रहे, अतः आपने जीवन में उसकी पीड़ा का अनुभव किया था। अतः आप में 'उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्' का सिद्धान्त मुखर था ,उसी के फलस्वरूप आपने सैकड़ों गरीब छात्रों को विभिन्न छात्रवृत्तियाँ प्रदान कराई तथा स्वयं अपने पास से उनकी आर्थिक मदद की। उन्हें पुस्तकें, वस्त्र आदि भी प्रदान किए। जैन वाङ्मय के अध्येता, त्यागियों, व्रतियों को भी आपने स्वयं पढ़ाया तथा उनकी आहारचर्या की भी व्यवस्था कराई। गुणाः गुणेषु गुणा: भवन्ति, ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः। आस्वाद्य तोयः प्रवहन्ति नद्याः, समुद्रमासाद्य भवत्यपेयाः।। गुणवानों के सान्निध्य में रहकर निर्गुणता पलायन कर जाती है। तदनुरूप आपके आचरण से सामान्य व्यक्ति भी गुणी बन जाता है। आपकी सहृदयता, विशालता, उदारता एवं कर्मवत्सलता का एक उदाहरण देखिए- आपने श्री अर्हन्त गिरि के भट्टारक स्वामी जी को समुचित मार्गदर्शन दिया एवं उन्हें जैनधर्म की सर्वोच्च उपाधि प्रदान कराई। अनेक शोधार्थियों की भरपूर सहायता की जो आज अनेक पदों पर पदासीन हैं। कुंथुगिरि की तीर्थयात्रा में मेरे सामने छात्रों को अपनी ओर से ग्यारह हजार रुपये दान दिए। विद्वत्शास्त्रीपरिषद् से प्राप्त पुरस्कार उसी संस्था को वापस दे दिया। गुणायतन को भी 51 हजार दान दिए। इस तरह दान करते रहते हैं। 40 से अधिक छात्रों को पी-एच.डी. कराई, आपके वैदुष्य में एक नया आयाम जब जुड़ा जब आपने आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी से 'मिथ्यात्व अकिंचित्कर है' विषय पर गहन विचार कर सभी की शंकाओं को समूल रूपेण दूर कराया। आपने महामहिम राष्ट्रपति श्री प्रणवमुखर्जी के कर-कमलों से राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त कर समूचे विद्वत् समुदाय में अपनी यशोपताका फहराई और कीर्ति का नया अध्याय जोड़ा। प्रसिद्ध साहित्यकार - अंधकार है वहाँ जहाँ आदित्य नहीं है, मुर्दा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है। आपने अपनी प्रशस्त लेखनी द्वारा उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन, संस्कृत प्रवेशिका, प्राकृत दीपिका आदि कई पुस्तकों का लेखन एवं मुनिसुव्रत काव्य, तर्कसंग्रह, कर्पूरमंजरी आदि का अनुवाद कर माँ सरस्वती के भंडार की श्रीवृद्धि की। अनेक पत्रिकाओं का सम्पादन-प्रकाशन किया। वर्तमान में संस्कृत बोलना समझना आकाश में तारे तोड़ना जैसा दुष्कर कार्य है पर आप जैसे सिद्ध-सारस्वत ने आकाशवाणी से संस्कृत वार्तायें भी प्रकाशित कराकर विद्वत्ता की अमिट छाप सबमें छोड़ी। प्रशस्त एवं उदार व्यक्तित्व के धनी एवं बुंदेली माटी के इस सपूत ने जैन जगत् में अपनी अलग पहचान बनाई। अपने सम्पूर्ण पुत्रों, पुत्रियों एवं पत्नी को भी पढ़ा लिखाकर सुयोग्य बनाकर उच्च पदों पर आसीन कराया। आप सभी के आदर्श हैं। आपका व्यक्तित्व कर्मठता का सन्देश देता है। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःखभाग भवेत्।। तथा परेषां हिताय सतां विभूतयः के आदर्श एवं यथार्थ से ओतप्रोत सभी के आदर्श, विद्वत् वर्ग में समादरणीय सम्मानीय श्री डॉ. सुदर्शनलाल जी के प्रति में प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि आप निरोगी रहें, सुखी रहें एवं विद्वानों के प्रेरणास्रोत बने रहें। शतायु हों आपका जीवन मङ्गलमय हो। पं. खेमचन्द जैन प्राचार्य, श्रीऋषभदेव विद्वत् महासङ्घ, जबलपुर
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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