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________________ 'अहिंसा' महाव्रत : प्रतिपाद्य धर्म का मुख्य स्वरूप है 'सदाचार' / 'सत्' का अर्थ है अच्छा। अच्छा यानी नियत में अच्छा। नियत खराब तो उसका आचार भी ऊपर से अच्छा दिखने पर भी अच्छा नहीं। नियत कैसी है यह केवल आचार-पालन करने वाले की अन्तरात्मा ही जान सकती है। दुर्योधन की नियत साफ नहीं थी, नहीं तो वह कुटिल मामा शकुनि से द्यूत (जुआ) में छल न कराता। इसलिए उसका आचरण छल यानी सत्य से उल्टा था। उसमें भी कारण था 'कामभाव'। काम यानी चाह। राज्य की चाह। शकुनि के पाशे दुर्योधन के पक्ष में ही पड़े, यह तो भीष्म ने भी देखा और द्रोण ने भी, किन्तु यह किसी ने नहीं देखा कि पाशे कूट पाशे थे। उनका प्रयोग छल से भरा था, तथापि उस क्रीडा को भी क्षत्रियधर्म ही समझा गया। गलती पर गलती होती गई और नीचता की हद हो गई जब राजसभा में द्रौपदी के वस्त्र हटाने का अधिकार ठहराया गया, ठहराने वाले थे भीष्म और द्रोण। परिणति अत्यन्त निन्दनीय और अतीव लज्जास्पद रही। अर्जुन ने क्षात्रधर्म में क्रूरता देखी और उसके कारण महाभारत युद्ध में होने वाले नरसंहार की जो भविष्यवाणी गीता के प्रथम अध्याय में की थी, वही सत्य हुई। इतने नरसंहार को हिंसा का ताण्डव ही कहा जाएगा। हिंसा हिंसक को भी खाती ही है / विषधर सर्प का घातक विष सपेरे के लिए भी विष ही ठहरता है। हिंसा होती है द्रोह नामक चित्तवृत्ति से। अत: कहा गया- अद्रोह है अहिंसा। द्रोह मानस् धर्म है, अत: यदि मन में द्रोह अङ्कुरित हुआ तो वह बढ़ेगा ही और हिंसा में भी परिणत होगा। महर्षि पतञ्जलि ने मानसिक हिंसा को भी हिंसा नामक प्रायश्चित्तीय पातक (पाप) माना और लिखा सर्वथा अनभिद्रोह है अहिंसा। हिंसा में वध की ही गणना नहीं, वध के संकल्प की भी गिनती है। हिंसा में किसी की भी हिंसा न करने का प्रतिबन्ध है-सर्वथा, सर्वदा, सर्वभूताऽनभिद्रोहः अहिंसा (पातञ्जल योगशास्त्र)। तत्त्वार्थसूत्र में जैन धर्म द्वारा मान्य अहिंसाव्रत का भी यही रूप है। जैनशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय में अहिंसा को एक व्रत कहा गया हिंसाऽनृत-स्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्।।7।। अहिंसा के लक्षण को तत्त्वार्थसूत्रकार ने इस प्रकार अपनाया और आगे लिखा- जन्तु अणु भी होते हैं और महत् भी। देश और काल की दृष्टि से आएगा अणुत्व या महत्त्व / अहिंसा व्रत में सर्वथा और सर्वदा विशेषणों से हिंसा के सभी प्रकार अपना लिए गए। उपाय भी बतलाया कि हिंसा से कैसे बचा जाए। लिखा इसके लिए करना चाहिए भावना1. सभी जीव मेरे मित्र और हितकारी बन्धु हैं, उनके प्रति करुणा का भाव रखना चाहिए और उनके साथ सङ्घर्ष से दूर रहना चाहिए। 2. यह भी सोचना चाहिए कि हिंसा से पाप होगा और वह परलोक में यातनाकारी होगा। तत्त्वार्थसूत्र में पाँच प्रकार की एतदर्थ भावनायें बतलाई हैं -हिंसा का अर्थ भी तत्त्वार्थसूत्र में दिया-प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा / / 7.8 // 'आवेग से अविवेक में डूबने से होती है हत्या, यानी किसी के प्राणों की समाप्ति / इस प्रकार के अविवेक का अवसर न आए, इसके लिए भावना करनी चाहिए कि अधिक लाभ हो भी गया, तो क्या? है तो यह नश्वर ही। स्वयं भोक्ता भी नश्वर है। भावनाएँ पाँच पाँच प्रकार की हैं। जैन व्याख्याकारों ने इसकी व्याख्या में कलम तोड़ दी। सिद्धसेन दिवाकर ने पाँच प्रकार की पाँच पाँच चर्या बतलाई - (1) वाङ्मनोगुप्तीर्यादान-निक्षेपण-समित्यालोकित-पानभोजनादीनि पञ्च। (2) क्रोध-लोभ-भीरुत्व-हास्य-प्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणञ्च पञ्च। (3) शून्यागारविमोचितावास-परोपकारोद्याकारण-भैक्ष्यशुद्धि-सद्धर्माऽविसंवादाश्च पञ्च। (4) स्त्रीरोगकथाश्रवण-तन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरताऽनुस्मरण-वृष्येष्टरस-स्व-शरीर-संस्कारत्यागाः पञ्च। (5) मनोज्ञा-मनोज्ञेन्द्रियविषय-राग-द्वेष-वर्जनानि पञ्च। 467
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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