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________________ अन्तस्थल में प्रस्फुटित होता है। कायवाङ्मनःकर्मयोगः - मन-वचन-काय के द्वारा होने वाले आत्म-प्रदेशों का परिस्पन्दन योग है। परन्तु मन-वचन-काय की एकीकारिता को ध्यानयोग कहा है। ध्यान की कक्षा से ही आत्म-साधना प्राणवान होती है। 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः''एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्' मनकी चंचल वृत्तियों का निरोध ही ध्यान योग है। यह योग विद्या सम्प्रदायातीत है। एक योगविद्या ही ऐसा स्थल है, जहाँ सभी सम्प्रदाय आकर एक हो जाते हैं। एक समान सूत्र की तरह यह योग सर्वधर्म सम्प्रदायों की एकता को प्रकट करता है। मानवमात्र के लिये यह उपयोगी है। योग के प्राणदायी तत्त्वों को अपनी-अपनी धारणानुसार सर्वत्र ग्रहण किया गया है। जैन साधना का मूलसूत्र ही ध्यान है। अर्हन्त भगवान् आत्म ध्यान से ही अष्टकर्मों से मुक्त हुए हैं। अर्हन्तों की सभी प्रतिमाएँ ध्यानावस्थित हैं-चाहे पद्मासन हो या खड्गासन। गीता में आत्मध्यान योगी का चित्रण इसी प्रकार का है समकायं शिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्। 6-13 / / शरीर, सिर और गर्दन को सीधा रखकर, निश्चल हो, इधर-उधर न देखते हुए, स्थिर मन से अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि लगावें। यह प्रशान्तात्मा आत्मध्यानस्थ योगी की प्रतिमा है, जहाँ न राग है और न द्वेषभाव। गीता का षष्ठ अध्याय योग ध्यानावस्था के चित्रण से अनुस्यूत है जो अर्हन्त की ध्यानवावस्था से मेल खाता है उद्धरेतात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।। आत्मैवात्मनो बन्धु आत्मैव रिपुरात्मना।। आत्म-चिन्तन रूप योगचर्या से ही अध्यात्म का द्वार खुलता है। अन्तश्चेतना का रूपान्तरण जो अध्यात्म में उपादेय है, ध्यानयोग से ही संभव है। योगचर्या इन्द्रिय, प्राण एवं मन बुद्धि के स्तरों को वेध करके, चेतना की अन्तर्दृष्टि उन्मुक्त करके अन्तःअनुभव के लोक में ले जाती है- जिसे उपनिषद् में 'आत्मानं विद्धि' कहा है। दार्शनिक सुकरात भी यही कहता है- Know thyself - अपने को अपने आपसे जानो। स्वयं को स्वयं से जानो। आचार्य योगीन्दुदेव विरचित 'योगसार' ध्यानयोग का परम आध्यात्मिक ग्रन्थ है। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र की एकता रूप शुद्ध आत्म-साधना या शुद्धात्मयोग का सार भलीभाँति प्रकट करने वाला होने से इसका योगसार नाम सार्थक है। इसमें एक सौ आठ अपभ्रंश भाषा के दोहे हैं। जो आत्मस्वरूप के बोधार्थ रचित हैं। नवीं शताब्दी के आचार्यवर्य श्री योगीन्दु ने संसार से भयभीत और आवागमन से मुक्ति के लिए उत्सुक प्राणियों की आत्मा को जगाने के लिये योगसार की रचना की है। 'योगसार' में बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा का स्वरूप बतलाते हुए परमात्मा के ध्यान पर बल दिया है। आत्मतत्त्व की प्राप्ति के लिए पाप-पुण्य दोनों प्रकार के कर्मों के त्याग का आदेश दिया है। मनुष्य सांसारिक बन्धनों और पाप-पुण्यों को त्यागकर आत्म-ध्यान में लीन हो मुक्ति को प्राप्त कर सकता है। जीव पुण्यकर्म से स्वर्ग को पाता है और पापकर्म से नरक निवास को। जब दोनों का परित्याग कर आत्मा को जानता है तब ही शिवत्व को प्राप्त करता है - ___ पुष्णि पावइ सग्गं, जिउ पावए णरय णिवासु। वे छांडिवि अप्पा मुणइ, सो लब्भइ सिव-वासु / / 32 / / आयु क्षीण होती जाती है, परन्तु न तो मन क्षीण होता है और न आशा ही। मोह स्फुरित होता है, आत्म-हित नहीं। इस प्रकार जीव भ्रमण करता रहता है - आयु गलइ णवि मणुगलइ, णवि आसा हु गलेइ। मोह फुरइ णवि अप्पहिउ, इम संसार भमेइं।। 49 / / योगीन्दुदेव कहते हैं - जिस प्रकार मन विषयों में रमता है, उसी प्रकार यदि आत्मचिन्तन करें तो शीघ्र ही निर्वाण प्राप्त होवे - जेइउ मणु विसयहं रमइ, तिम जइ अप्प मुणेइ। जोइउ भणइ हो जोइयहु, लहु णिव्वाणु लहेइं।।50 / / योगीन्दु के परमात्म प्रकाश का प्रतिपाद्य भी योगसार के समान ही है। तदनुसार- वह परमात्मा देह भिन्न है, 462
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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