SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 475
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तम बुद्धि वाला श्रावक प्रतिमाओं में अर्हत की बुद्धि से अहंत भगवान की और सिद्ध यंत्र में स्वर व्यञ्जन आदि रूप से सिदों की स्थापना करके पूजा करे। विवेकी जीवभाव पूर्वक अरिहंत को नमस्कार करता है। वह अ समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। क्योंकि अर्हत नमस्कार तत्कालीन बंध की अपेक्षा असंख्यात गुणी कर्म-निर्जरा का कारण है। भगवंत पुष्पदन्त भूतवली स्वामी ने धवला ग्रन्थ में लिखा है कि "जिणविंव-दंसणेण णिधत्तादि काचिदस्स-वि मिच्छत्तादि-कम्म-कलावस्स खयदंसणादो" अर्थात् जिन बिम्ब के दर्शन से निधत्ति और निकाचित रूप कर्म भी मिथ्यात्वादि कर्म-कलाप का क्षय हो जाता है। अहँत भगवान की पूजा के महात्म्य से सम्यग्दर्शन से पवित्र पूजक को पूजा आज्ञा आदि उत्कर्ष कारक सम्पत्तियाँ आवश्यक रूप से प्राप्त होती हैं। फिर व्रत सहित व्यक्ति का तो कहना ही क्या है। जो व्यक्ति भक्ति से जिनवाणी को पूजते हैं वे पुरुष वास्तव में जिन भगवान को ही पूजते हैं। क्योंकि सर्वज्ञदेव जिनवाणी और जिनेन्द्रदेव में कुछ भी अन्तर नहीं है। पूजा की वैज्ञानिकता - ज्ञानपूर्वक श्री अरिहंत के पादमूल में की गई पूजा ही उत्तमफल और सिद्धियों को देने वाली होती है। जिस थाली में द्रव्य चढ़ाते हैं उसमें बीजाक्षरों को अङ्कित करते हैं उनका हेतु हमें अवश्य जानना चाहिए। क्योंकि बिना कारण के कार्य की सिद्धि सम्भव नहीं है। विवेक पूर्वक की गई पूजा-प्रवृत्ति ही मोक्षसिद्धि में साधक होती है। द्रव्य चढ़ाने वाली थाली में सर्वप्रथम चन्दन या केशर से? बीजाक्षर लिखें उसके नीचे "श्री" तथा उनके नीचे स्वास्तिक बनाएँ। दाएं हाथ की तरफ खड़े में 5 बिन्दु और बाएं हाथ की तरफ खड़े में चार बिन्दु, स्वास्तिक के नीचे तीन बिन्दु रखें तथा धापना (ढोना) के ऊपर अष्टपंखुण्डी का कमल बनाएँ। जब हम पूजन आरंभ करें तो बाएं हाथ की तरफ थाली में बनी चार बिन्दुओं पर ही पुष्प चढ़ाएं यह चार बिन्दु अर्हत सिद्ध साधू तथा इनके कहे हुए धर्म की प्रतीक हैं। ये तीन लोक में उत्तम हैं, मङ्गलमय हैं, तथा शरणभूत हैं। अतउत्तम कल्याणक शरणभूत के लिए अर्हत के पादमूल में इन्हीं 4 बिन्दुओं पर पुष्प चढ़ाकर कल्याण की भावना साकार करते हैं। पूजन के आरंभ में 'अपवित्रः पवित्रो वा पद' बोल कर पूजक को यंत्र की, कल्याणकों की, द्वादशांग वाणी की, तीर्थङ्कर के 1008 गुणों की एवं तत्त्वार्थसूत्र की पूजा करना चाहिए। अतः पांच बिन्दुओं पर पांचों पूजाएँ या 5 अर्घ उपर्युक्त हेतुओं की आराधना के अर्थ अर्पित करते हैं। हमारे पूर्वाचार्यों ने प्राकृत या संस्कृत भाषा में जिन पूजाओं की रचना की है पूर्व विद्वान कवियों ने हिन्दी पद्यान्तर में उसी अनुरूप पूजाएँ लिखकर महान उपकार किया। वर्तमान कवियों ने नवीन नवीन प्रकार की अक्रमिक पुजाएँ लिखकर पूजा-पद्धति में विकृति प्रदान की है। सर्वप्रथम देवशास्त्र गुरु की पूजा करना चाहिए और इस पूजा की अष्ट द्रव्य ॐ बीजाक्षर पर ही अर्पित करना चाहिए। प्रत्येक बीजाक्षर को आत्मभूत करने (सिद्ध करने) के लिए उस बीजाक्षर रूप की गई आराधना की अष्ट द्रव्य चढ़ाने की आवश्यकता है। इससे ही वह बीजाक्षर आत्मभूत होता है। जब तक बीजाक्षर आत्मभूत नहीं होगा आत्मा की पात्रता मोक्षरूप सम्भव नहीं है। ॐ बीजाक्षर पञ्च परमेष्ठी के प्रथम मूल अक्षरों का संयुक्त रूप है। अत: इस बीजाक्षर के आत्मभूत होने पर पञ्चपरमेष्ठी पद की प्राप्ति सुनिश्चित है। यह पद ही मोक्ष सिद्धि का हेतु है। देव के अन्तर्गत सिद्ध भगवान भी आते हैं। अत: देव, शास्त्र गुरु और सिद्ध भगवान की आराधना सामग्री ॐ पर ही अर्पित करते हैं। जब तीर्थङ्कर विशेष या सामूहिक तीर्थङ्कर मात्र की पूजन करें तो 'श्री' बीजाक्षर पर ही आठों द्रव्य अर्पित करें। 'श्री' बीजाक्षर श्रेय का प्रतीक कहा गया है। अतः जो श्रेय तीर्थङ्कर की आत्मा ने प्राप्त किया है वैसा ही श्रेय उनकी आराधना से मुझे प्राप्त हो। इस आकांक्षा की साकारता में हम 'श्री' बीजाक्षर को आत्मभूत करते हैं। स्वास्तिक कल्याण का प्रतीक बीजाक्षर है। अतः व्रत निर्वाण भूमि, तीर्थ मंदिर आदि की आराधना से हमारा कल्याण होता है। इसलिए इन सभी की पूजाओं में द्रव्य स्वास्तिक पर ही अर्पित करते हुए कल्याण की आकांक्षा साकार करते हैं। थापना (ठोना) पर आठ पंखुडी का कमल बनाते हैं, सिद्धप्रभु के आठ गुण हैं। अत: उन गुणों की प्राप्ति हेतु आह्वानन, स्थापन, सन्निधिकरण के पुष्प ठोना पर अर्पित करते हैं। स्वास्तिक के नीचे जो आडे में तीन बिन्दु हैं-उसमें समस्त पूजाऐं करने के बाद जिस ग्राम/नगर में हम पूजा कर रहे हैं उस नगर के अन्य समस्त जिनालयों में विराजे जिन भगवन्तों के साथ उस नगर की सीमा में जमीन के अन्दर यदि कोई जिन मंदिर या प्रतिमा दबी हो अथवा उस नगर की 455
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy