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________________ लिखा है -'वस्तुस्वभावोऽयं यत् संस्कार: स्मृतिबीजमादधीत' अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही संस्कार है जिसे स्मृति का बीज माना गया है। पञ्चास्तिकाय ग्रन्थ की तात्पर्य वृत्ति में पृष्ठ 251 पर लिखा है कि निज परम आत्मा में शुद्ध संस्कार करता है वह आत्मसंस्कार है। आत्म-संस्कार ही जीव की कर्म-श्रृंखला को निर्मूल करने में साधक है और यही उसकी चरमोपलब्धि है। श्री बट्टकेर अचार्य प्रणीत मूलाचार ग्रन्थ में पृष्ठ 286 पर लिखा है कि पठित ज्ञान के संस्कार जीव के साथ जाते हैं। विनय से पढ़ा हुआ शास्त्र किसी समय प्रभाव से विस्मृत हो जाये तो भी वह अन्य जन्म में स्मरण हो जाता है। संस्कार रहता है और क्रम से केवलज्ञान को प्राप्त कराता है। अत: जीव के कल्याण में संस्कार का ही सर्वोपरि महत्त्व है। धवला ग्रन्थ पुस्तक 7 खण्ड 4 पृष्ठ 82 में भगवंत पुष्पदन्त भूतवली स्वामी ने लिखा है कि चार प्रकार की प्रज्ञाओं में जन्मान्तर में चार प्रकार की निर्मल बुद्धि के बल से विनय पूर्वक 12 अङ्गों का अवधारण करके देवों में उत्पन्न होकर पश्चात् अविनष्ट संस्कार के साथ मनुष्य में उत्पन्न होने पर इस भव में पढ़ने सुनने व पूंछने आदि के व्यापार से रहित जीव की प्रज्ञा औत्पात्तिकी कहलाती है। तत्त्वार्थसार ग्रन्थ में जीवाधिकार पृष्ठ 45 में धवला की उपर्युक्त वर्णित कथनी की पुष्टि करते हुए आचार्य भगवन लिखते हैं कि नरकादि भवों में जहाँ उपदेश का अभाव है वहाँ पूर्व भव में धारण किए हुए तत्त्वार्थ ज्ञान के संस्कार के बल से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार आचार्यकल्प टोडरमल जी मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ के पृष्ठ 283 पर लिखते हैं कि इस भव में अभ्यास कर अगली पर्याय तिर्यञ्च आदि में भी जाय तो वहाँ संस्कार के बल से देव शास्त्र गुरु के बिना भी सम्यक्त्व हो जाय। 'स्वाध्याय एव तपः' की बात पूर्व से ही हमारे आगम आचार्यों एवं भव्यों को सम्बोधते आए हैं। स्वाध्याय का संस्कार केवलज्ञान होने तक सहकारी होता है। लोक में जीव के आत्मर हित में यह सर्वोपरि है। द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ की टीका में पृष्ठ 159/160 पर लिखा है कि सम्यग्दृष्टि शुद्धात्म भावना भाने में असमर्थ होता है तब वह परम भक्ति करता है पश्चात् विदेहों में जाकर समवशरण को देखता है। पूर्व जन्म में भावित विशिष्ट भेदज्ञान के संस्कार के बल से मोह नहीं करता और दीक्षा धारण कर मोक्ष पाता है। जैनागम ग्रन्थों में वर्णित इन प्रसङ्गों से स्पष्ट है कि मनुष्य भव के सम्यक् संस्कार एवं स्वाध्याय उसे मोक्ष तक पहुँचाने में पूर्ण सहकारी हैं। यह कथन जीव द्रव्य के संस्कारों का है। प्रतिमा प्रतिष्ठा निर्देशक ग्रन्थ पञ्चसंग्रह ग्रन्थ में धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा, प्रतिष्ठा इन सभी को एकार्थ वाची कहा गया है जिनमें विनाश बिना पदार्थ प्रतिष्ठित रहते हैं वह बुद्धि प्रतिष्ठा है। प्रतिमा-प्रतिष्ठा का विधान सर्व प्रथम आचार्य नेमिचन्द देव ने अपने प्रतिष्ठातिलक नामक ग्रन्थ में किया है। आचार्य नेमिचन्द्र देव के गुरु आचार्य अभयचन्द्र और आचार्य विजयकीर्ति थे, इनके प्रतिष्ठा तिलक ग्रन्थ का प्रचार दक्षिण भारत में व्यापकता के साथ है। यह ग्रन्थ विक्रम संवत् 950 से 1020 के मध्य रचा गया है। विक्रम सम्वत् दश में ही आचार्य नेमिचन्द्रदेव के शिष्य आचार्य बसुनन्दि हुए इन्होंने प्राकृत भाषा में उपासकाध्ययन श्रावकाचार नाम के ग्रन्थ की रचना की उसी के अन्तर्गत प्रतिष्ठा विधान का वर्णन संक्षिप्त रूप में संस्कृत भाषा में किया जो महत्त्वपूर्ण है। पश्चात् आचार्य इन्द्रनन्दि महाराज ने विक्रमसंम्वत् 10/11 वीं शताब्दी में अपने प्रतिष्ठा ग्रन्थ में प्रतिमा प्रतिष्ठा, वेदी प्रतिष्ठा और शुद्धि विधान का वर्णन किया है। लगभग इसी समय सम्वत् 1042-1053 में आचार्य श्री वसुविन्दु अपरनाम जयसेनाचार्य जी ने एक स्वतंत्र प्रतिष्ठा ग्रन्थ की रचना की, जिसमें 926 श्लोक हैं। प्रतिमा प्रतिष्ठा का यह प्रमाणिक ग्रन्थ माना जाता है। श्री जयसेन स्वामी भगवन्त कुन्दकुन्दाचार्य के शिष्य थे। कहा जाता है कि इस प्रतिष्ठा ग्रन्थ की रचना मात्र 2 दिन में ही की थी। इस प्रतिष्ठा ग्रन्थ का प्रचार उत्तर भारत में है। वि.सं. 1292-1333 के मध्य आचार्य ब्रह्मदेव हुए इन्होंने प्रतिष्ठा तिलक नामक ग्रन्थ की रचना की जो शुद्ध संस्कृत भाषा में है। और प्रतिमा प्रतिष्ठा का एक विशिष्ट हदयग्राही वर्णन इसमें लिखा है। इसी समय वि. सम्वत् / / 73-1243 में आचार्य कल्प पं. आशाधर जी का प्रणीत प्रतिष्ठा-सारोद्धार ग्रन्थ प्रकाश में आया। समय और काल की परिस्थितियों के अनुसार इस प्रतिष्ठा ग्रन्थ में अनेक देवी-देवताओं की उपासना का प्रसङ्ग आया है। इसी समय वि.सं. 1200 में नरेन्द्र स्केस्वार्णयहोंनेविसिष्ठादीपुकह नाजनसहिताकीवसा की यह जुयुसेन आचार्य के वंशज थे। प्रस्तुत ग्रन्थ में मात्र 35आयामेकमानसिंविलिच्छिामाको विश्चिाक्षमष्टय अबिल प्रतिमासारवान किया है। ग्रन्थ में स्थाप्य, स्थापक और स्थानाधाया कुमुदचदैद्राचायकेद्वासनमातआचार्यविस्जिकलंकी घटाएकच्छि जितेिष्टा 450
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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