SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 463
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है। वहाँ तेज वर्षा होने पर विदूषक भी समुद्र की मुक्तासीपियों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है। पश्चात् वह सुन्दर और बड़ेबड़े 64 मोतियों के रूप में बाहर निकाला जाता है जिसे सागरदत्त सेठ मोल लेकर हार बनवाता है। पश्चात् पांचाल देश के राजा श्री बज्रायुध को एक करोड़ मुद्राओं में वह हार बेच देता है। राजा उस हार को रानी के गले में पहिना देता है। चाँदनी रात को राजा ने जब रानी का आलिङ्गन किया तो स्तनों के मध्य में हार के दब जाने से विदूषक की निद्रा टूट जाती है। राजा विदूषक के स्वप्न का तात्पर्य समझ जाता है। पश्चात् दोनों में प्रेम, यौवन और सौन्दर्य में अलंकारों की स्थिति पर विस्तृत विचार होता है। इसी समय नेपथ्य से कुरंगिका कर्पूरमञ्जरी के विरहसन्ताप का वर्णन करती है। राजा और विदूषक आगे बढ़ते हैं और कर्पूरमञ्जरी के पास पहुँच जाते हैं। जब कर्पूरमञ्जरी स्वागतार्थ उठती है तो राजा उसका हाथ पकड़कर रोकता है। कर्पूरमञ्जरी को पसीने से भीगा देखकर विदूषक वस्त्रांचल से हवा करता है जिससे दीपक बुझ जाता है। अंधकार में राजा कर्पूरमञ्जरी का हाथ पकड़े हुए स्पर्श सुख का अनुभव कर ही रहे थे कि नेपथ्य से वैतालिक चन्द्रोदय की सूचना देता है। सभी चन्द्रोदय का वर्णन करते हैं। इधर देवी को राजा और कर्पूरमञ्जरी के प्रणय व्यापार की सूचना मिल जाती है परन्तु देवी के आने के पूर्व ही कर्पूरमञ्जरी सुरङ्गद्वार से रक्षा गृह में चली जाती है। राजा और विदूषक भी चले जाते हैं। चतुर्थ जवनिकान्तर - राजा और विदूषक का प्रवेश होता है। राजा ग्रीष्म ऋतु में विरह सन्ताप से व्याकुल है। विदूषक अपने को ग्रीष्म सन्ताप और विरहसन्ताप दोनों से परे बतलाता है, इस पर नेपथ्य से एक शुक विदूषक की चोटी उखाड़ने को कहता है। विदूषक क्रोधित होकर उसे गालियां देता है जिससे शुक उड़ जाता है। राजा विरह सन्ताप से पीड़ित होकर ब्रह्मा को ही क्षुरी के द्वारा खण्डित करने की बात करता है। प्रसङ्गत: ग्रीष्म ऋतु कब सुखद होती है और कब दुःखद होती है ? इसकी भी चर्चा राजा करता है। राजा के द्वारा कर्पूरमञ्जरी का हाल पूछने पर विदूषक कहता है कि देवी ने उसे कड़े पहरे वाले कारागार में बंद कर दिया है। सुरङ्गद्वार भी पत्थरों से बंद कर दिया गया है। इसी बीच देवी की सखी सारंगिका राजा से देवी की ओर से निवेदन करती है-'आज चौथे दिन होने वाले वटसावित्री के महोत्सव को महाराज विमान प्रासाद पर चढ़कर देखें।' राजा वैसा ही करता है। महोत्सव में नृत्यांगनाएं विविध प्रकार के नृत्य करती हैं। इसी बीच सारंगिका पुनः प्रवेश करके देवी का दूसरा निवेदन राजा को सुनाती है-'आज सायंकाल तुम्हारा विवाह होगा। गोरी की प्रतिमा बनवाकर योगीराज भैरवानन्द से उसमें प्राणप्रतिष्ठा कराई थी तथा उनसे स्वयं दीक्षा भी ली थी। देवी ने जब योगीराज से गुरुदक्षिणा लेने का बहुत आग्रह किया तो योगीराज ने गुरु दक्षिणा में लाट देश के राजा चण्डसेन की पुत्री घनसारमंजरी के साथ राजा का विवाह करने को कहा। साथ ही यह भी कहा कि जो इसके साथ विवाह करेगा वह चक्रवर्ती राजा बनेगा। देवी ने इसे स्वीकार करके मुझे आपके पास सूचनार्थ भेजा है।' यथा समय राजा का विवाह होता है। विवाहोपरान्त देवी को पता चलता है कि कर्पूरमञ्जरी का ही दूसरा नाम घनसारमंजरी है। भैरवानन्द जब राजा से और प्रिय करने को कहता है तब राजा कहता है कि देवी प्रसन्न हैं, त्रिभुवन सुन्दरी कर्पूरमञ्जरी का समागम हो गया है और मैं चक्रवर्ती राजा बन गया हूँ; अब और क्या चाहिए? इसके बाद भरतवाक्य के साथ सभी चले जाते हैं। व्याख्या का वैशिष्ट्य- कर्पूरमञ्जरी की अभिनव एवं परिष्कृत व्याख्या संस्कृत-प्राकृत साहित्य के प्रमुख अध्येता डॉ. सुदर्शनलाल जैन, एम.ए., पी-एच.डी. आचार्य (साहित्य, प्राकृत, जैनदर्शन) तत्कालीन प्रवक्ता, संस्कृत विभाग, कला संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ने की। वे बाद में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष बने और उन्होंने विद्यार्थियों में संस्कृत विभाग के प्रति अभिरुचि जगाने एवं शोधकार्य की दिशा में प्रशंसनीय योगदान दिया। भारत के महामहिम राष्ट्रपति ने उन्हें उनकी उल्लेखनीय सेवाओं के लिए सम्मानित किया। डॉ. सुदर्शनलाल जैन ने अपने अनुसंधित्सु स्वभाव एवं अध्यापकीय दृष्टि को ध्यान में रखकर कर्पूरमञ्जरी की व्याख्या लिखी है। मूल के अनुसार व्याख्या करना और मूल के भाव को सुरक्षित रखना इस व्याख्या की विशेषता है। श्री विश्वनाथ भट्टाचार्य ने कर्पूरमञ्जरी के प्राक्कथन में राजशेखर के विषय में लिखा है कि-वे सिद्धहस्त कवि हैं और स्थानस्थान पर भावों के सूक्ष्म चित्रण में वे उच्चकोटि का अनायास स्पर्श कर जाते हैं। संस्कृत तथा प्राकृत दोनों में ऐसे अनेक श्लोक हम पाते हैं जो कविदृष्टि की विलक्षण सूक्ष्मता और भावप्रकाशन की निपुणता के द्योतक हैं। समीक्षक प्रायः सफल कवि नहीं होते, कवि भी सार्थक समीक्षक नहीं होते पर राजशेखर एक सफल कवि और सार्थक समीक्षक हैंयह स्मरणीय तथ्य उनकी अद्वितीयता का सबसे बड़ा प्रमाण है। 443
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy