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________________ उपादेय है। मुझे पूर्ण आशा और विश्वास है कि तर्कसंग्रह की आचार्य जैन द्वारा रचित हिन्दी व्याख्या की लोकप्रियता सतत् बनी रहेगी। विद्वानों के अभिमत - 1. प्रोफेसर महाप्रभुलाल गोस्वामी, अध्यक्ष, दर्शन विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी - दीपिकान्यायबोधिन्यादिपूर्वाचार्य-व्याख्यानग्रन्थानां सारमवलम्ब्य काचिन्नूतन एवार्थावबोधस्य वैज्ञानिकी-सरणिरवलम्बिता 2. डॉ. सागरमल जैन, निदेशक, पी.वी.इन्स्टीट्यूट, वाराणसी- यह हिन्दी व्याख्या अत्यन्त सुबोध तथा विषय को गहराई के साथ स्पष्ट करती है। 'दीपिका' पदकृत्य आदि संस्कृत-टीकाओं का सारतत्त्व गृहीत होने के कारण सामान्य पाठक भी इसके अध्ययन से न्याय जैसे गम्भीर विषय को आत्मसात् कर सकता है। ग्रन्थ में बीच-बीच में प्रश्नोत्तर शैली अपनायी गई है तथा विषय को तालिकाओं द्वारा भी स्पष्ट किया गया है। 3. प्रोफेसर धर्मेन्द्र कुमार गुप्त, अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला- आपने अत्यन्त परिश्रम करके इस ग्रन्थ का सरल-विशद व्याख्यान प्रस्तुत किया है। प्रो. उमा देवी जोशी भूतपूर्व प्रोफेसर, संस्कृत विभाग, काशी हिन्दूविश्वविद्यालय, वाराणसी सुदर्शनलाल जैन कृत व्याख्या से सरल बनी कर्पूरमञ्जरी महाकवि राजशेखर कृत 'कर्पूरमञ्जरी' 'सट्टक' परम्परा में रचित महान् नाट्यकृति है; जिसके उल्लेख के बिना संस्कृत नाट्य साहित्य की चर्चा पूरी नहीं होती। प्राकृत और संस्कृत के भाषासौष्ठव की दृष्टि से यह महनीय कृति है। यहाँ उल्लेखनीय है कि महाकवि राजशेखर मूलतः संस्कृत के कवि हैं जिसका प्रताप उनके संस्कृत श्लोकों में देखने को मिलता है। उन्होंने 'कर्पूरमञ्जरी' में प्रमुख रूप से प्राकृत भाषा का आश्रय लिया है। यह प्राकृत साहित्य (काव्य) सृजन के क्षेत्र में उनका महनीय योगदान है। प्राकृत भाषा में लिखित उनकी उक्तियां भी विलक्षण हैं। एक प्रयोग यहाँ दृष्टव्य है रुवेण मुक्का वि विहूसअंति ताणं अलंकार वसेण सोहा। णिसग्गचंगस्स वि माणुसस्य सोहा समुम्मीलइ भूसणेहिं।। अर्थात् युवतियाँ रूप से विहीन होकर अलंकार धारण करती हैं, उनकी सुन्दरता अलंकारों के अधीन होती है; किन्तु जो स्वभाव सुन्दर है; उनकी शोभा में अलंकारों से उत्कर्ष आता है। महाकवि राजशेखर का समय विद्वानों ने ईस्वी 885 से ईस्वी 975 तक के मध्य माना है। कर्पूरमञ्जरी' एक 'सडक' है। सट्टक के विषय में कवि ने स्वयं लिखा है कि - सो सट्टओ त्ति भण्णइ दूरं जो णाडिआइं अणुहरई। किं पुण पवेसअ-विक्कंभकाई इह केवलं णत्थि।। अर्थात् उस दृश्य काव्य का नाम सट्टक है जो नाटिका नामक दृश्यकाव्य से मिलता-जुलता है। नाटिका से सटक में केवल यह अन्तर होता है कि सड़क में प्रवेशक और विष्कम्भक नामक दो अर्थोपक्षेपक नहीं होते हैं। साहित्यर्पण के रचयिता श्री विश्वनाथ ने सट्टक का स्वरूप इस प्रकार बताया है - सट्टकं प्राकृताशेषपाठ्यं स्यादप्रवेशकम्। न च विष्कम्भकोप्यत्र प्रचुरश्चाद्भुतो रसः।। अङ्का जवनिकाख्याः स्युः स्यादन्यन्नाटिका समम्। उन्होंने 'सट्टक' की चार विशेषताएं बतलायी हैं1. सम्पूर्ण दृश्यकाव्य का प्राकृत भाषा में उपनिबन्धन। 2. अद्भुत रस का प्रचुर प्रयोग। 3. अङ्कों के स्थान पर जबनिका का प्रयोग। 441
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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