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________________ संस्कृत प्राकृत 1. ऐ, औ, ऋऋ लु, ष, श, विसर्ग, जिह्वामूलीय, 1. ऐ आदि का प्रयोग नहीं। (मागधी में ष, स > श। महाराष्ट्री में उपध्मानीय, प्लुत स्वर के प्रयोग। सर्वत्र 'स')।एँ, ओं इन नई ध्वनियों का प्रयोग। 2. उवृत्त स्वर नहीं परन्तु प्रकृति एवं प्रगृह्य संज्ञा 2. उदवृत्त स्वरों की स्थिति तथा उनके होने पर सन्ध्यभाव का होने पर सन्ध्यभाव का विधान है। विधान। 3. 'य' श्रुति नहीं। 3. 'य' श्रुति (स्वर मध्यवर्ती क ग आदि का लोप होने पर)। 4. चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग। 4. चतुर्थी के स्थान पर षष्टी का प्रयोग। 5. कारक प्रयोग में व्यत्यय नहीं। 5. कारक प्रयोग में व्यत्यय। 6. एक, द्वि और बहुवचने का प्रयोग। 6. द्विवचन छोड़कर शेष दो वचनों का प्रयोग। 7. परस्मैपद - आत्मनेपद प्रयोग में नियमितता। 7. परस्मैपद प्रयोग की बहुलता। 8. व्यञ्जनान्त पद-प्रयोग। 8. कोई व्यञ्जनान्त पद नहीं। सभी स्वरान्त पद हैं। 9. पदादि में संयुक्त व्यञ्जन हैं। 9. पदादि में संयुक्त व्यञ्जन नहीं। 10. समानवर्गीय और असमानवर्गीय संयुक्त व्यञ्जनों का सद्भाव। 10. केवल समानवर्गीय संयुक्त व्यञ्जन हैं।असमानवर्गीय संयुक्त, व्यञ्जन नहीं। 11. 'न' के स्थान पर 'ण' का प्रयोग खास स्थान पर ही होता 11. सर्वत्र 'न' के स्थान पर 'ण', परन्तु तवर्ग के साथ न का प्रयोग होता है। (पदादि में न का प्रयोग हेमचन्द के मत से होता है, अन्यत्र 'ण' होगा। 12. 'न' का निषेध अर्थ। 12. 'न' का निषेध और 'सादृश्य' अर्थ। 13. शब्दरूपों और क्रियारूपों की जटिलता। 13. शब्दरूपों और क्रियारूपों का सरलीकरण। 14. 'बहुलम्' सूत्र का प्रयोग नहीं। 14. 'बहुलम्' सूत्र की प्राय: सर्वत्र प्रवृत्ति। 15. संस्कृत नाटकों में उच्च पात्रों की भाषा। 15. संस्कृत नाटकों में स्त्रियों और निम्न पात्रों की भाषा। 16. भाषा संश्लेषणात्मक है। 16. संश्लेषणात्मक होकर भी विश्लेषणात्मकता की ओर झुकाव। 17. स्वरों का समानुपातिक प्रयोग। 17. स्वरों का अधिक प्रयोग होनेसे कहीं-कहीं अर्थभेद में दिक्कत। 18. भूतकाल के तीन भेद हैं। 18. भूतकाल का केवल एक प्रकार रह गया है। 19. स्वरमध्यवर्ती क ग च ज त द प य व' का लोप नहीं। 19. स्वरमध्यवर्ती क ग आदि का प्रायः लोप जिससे कहीं-कहीं शब्द घिसकर स्वरमात्र रह गए हैं। जैसे ऋतु > उउ 20. स्वरमध्यवर्ती 'ख घ थ भ सुरक्षित हैं'। 20. स्वरमध्यवर्ती 'ख घ थ भ के स्थान पर 'ह' ध्वनि। 21. स्वर मध्यवर्ती 'ट > ड, में ठ > ढ' में परिवर्तित नहीं होते। 21. परिवर्तन होता है / जैसे - घटः > घडो, पठ > पढ। है। लौकिक संस्कृत में प्राकृत के बीज प्राकृत शब्दों के साथ संस्कृत के उन शब्दों की समानता जिनका उल्लेख प्राचीन संस्कृत कोशों (अमरकोश, हेमचन्द्र अभिधान-नाममाला, पुरुषोत्तमप्रणीत द्विरूपकोश, शब्दरत्नाकरकोश, शब्दकल्पद्रुमकोश आदि) में मिलता है तथा जिनका प्रयोग प्राचीन पुरोहितों की पण्डिताऊ संस्कृत में होता था जिसे अवैदिक संस्कृत भी कहा जाता है। जैसे - (1)'अ' लोप (अलावू > लावू ; अ> आ (पति > पाति); अ> इ (कन्दुक > गिन्दुक), आ > अ, इ, अ, इ > ए, ई > ए, ऋ) रि, औ> उ। (2) व्यञ्जनों में अन्त्य व्यञ्जन लोप, (सोमन् > सोम, चर्मा ) चर्म); क) ग, ख> ह, घ> ह, द > ज, ट ) इ, इ> ल, ण > ल, त त > थ, र; थ > ध, द > त; प > ब, व; भ > ब, म > व, य > ज. र > ल, व > ब, म, श > स; ष> स, ह) घ। (3) संयुक्त व्यञ्जनों में - क, द, य, र, ल, व, स लोप, अनुस्वारगम, र्थ, र्भ, म्र, र्ष ह्र में अकार या इकारागम (कम्र > कमर), क्ष> ख, क्ष> च्छ, त्त ट्ट , त्स > च्छ, श्च > छ, श्म > म्भ, ष्ट्र > ढ आदि। प्राकृत साहित्य की विविधता और विशेषता वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत और प्राकृत भाषाओं का भाषाविज्ञान की दृष्टि से परस्पर क्या सम्बन्ध है ? इसका विचार किया गया। इतना विशेष रूप से ज्ञेय है कि संस्कृत की ऐसी कोई भी विधा नहीं है जिस पर प्राकृत में साहित्य न लिखा गया हो। जैसे - महाकाव्य, खण्डकाव्य, चरितकाव्य, मुक्तक, चम्पू, कथा, सट्टक (नाटक), शिलालेख, 394
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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