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________________ यहाँ इतना विशेष है कि प्राकृत भाषा केवल स्त्रियों, श्रमणों और नीच पात्रों की ही भाषा नहीं थी अपितु वैदिक पण्डितों की भी भाषा थी। इसीलिए प्रवरसेन, वाक्पति, शालिवाहन, राजशेखर आदि वैदिक विद्वानों ने प्राकृत काव्य लिखे तथा वररुचि, लक्ष्मीधर, क्रमदीश्वर, मार्कण्डेय आदि वैदिक विद्वानों ने प्राकृतव्याकरण ग्रन्थ भी लिखे। इस तरह प्राकृत भाषा सामान्य जन से लेकर विद्वानों तक की भाषा थी। संस्कृत के अभिज्ञानशाकुन्तल आदि नाट्य ग्रन्थ तथा काव्यप्रकाश आदि लक्षण ग्रन्थ इसके प्रमाण हैं। धार्मिक विधियों और शास्त्रसभा में प्राकृत का प्रचलन नहीं था, जिसे भगवान् महावीर और बुद्ध ने प्रारम्भ करा दिया। इस तरह प्राकृत भाषा यद्यपि कथ्यरूप से वैदिक काल में थी, परन्तु उसका साहित्यिक रूप प्रमुख रूप से संस्कृत के बाद विकसित हुआ है। जब प्राकृत भाषा को भगवान् महावीर और बुद्ध ने सम्मान दिया, सम्राट अशोक ने उसे राज्यभाषा का गौरव प्रदान किया तथा शिलालेखों आदि में उसका प्रयोग किया तो विद्वानों ने उसका भी अनुशासन करके उसे गतिहीन कर दिया परन्तु जो लोकव्यवहार अनुशासनहीन होकर चलता रहा उसने अपभ्रंश आदि के क्रम से आधुनिक लोकभाषाओं को उत्पन्न किया। आज इनका भी अनुशासन हो गया है परन्तु जनभाषा के प्रवाह का नहीं जिससे प्रान्तीय उपभाषाओं का विकास हो रहा है। बुद्ध के अनुयायियों ने अपने धार्मिक ग्रन्थों की भाषा को पृथक् करके पालि नाम से व्यवहृत किया, शेष साहित्य प्राकृत के नाम से विख्यात हुआ। साहित्यिक प्राकृत भाषा का विकासक्रम की दृष्टि से तीन युगों में विभाजन (1) प्रथम युग (ई.पू. 600 ई. 200) इस काल में त्रिपिटक एवं धम्मपद की पालि, पेशाची, चूलिका पैशाची, अर्धमागधी या प्राचीन धर्मसूत्र ग्रन्थों की प्राकृत, अशोक की शिलालेखी प्राकृत तथा अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत का समावेश किया जाता है। (2) द्वितीय युग (ई0 201 से ई. 600) इस काल में भास एवं कालिदास के नाटकों की प्राकृत, सेतुबन्ध आदि काव्य ग्रन्थों की प्राकृत, परवर्ती जैन काव्य साहित्य की प्राकृत तथा प्राकृत व्याकरणों द्वारा अनुशासित प्राकृत का समावेश किया जाता है। (3) तृतीय युग या अपभ्रंश युग (ई0 601 से ई0 1200) - इस काल में विभिन्न प्रान्तीय अपभ्रंश भाषायें आती हैं। इन्हें प्राकृत से पृथक् भाषा समुदाय भी कह सकते हैं क्योंकि इनका विकास प्राकृत से हुआ है, तथा इनकी प्रवृत्ति सामान्य प्राकृत से कुछ भिन्न है। प्राकृत भाषाओं का विभाजन प्राकृत-प्रकाश में आ० वररुचि ने पालि और अपभ्रंश को छोड़कर प्राकृत भाषा समुदाय को चार प्रमुख प्रकारों में विभक्त करके अनुशासन किया है - महाराष्ट्री (सामान्य प्राकृत), पैशाची, मागधी और शौरसैनी। आO हेमचन्द्र ने सिद्धहेम-शब्दानुशासन में चूलिका पैशाची, आर्ष (अर्धमागधी) और अपभ्रंश को जोड़कर 7 भाग करके अनुशासन किया है। मार्कण्डेय ने प्राकृतसर्वस्व में प्रथमतः भाषा के चार भेद करके उनके अवान्तर भेदों को गिनाया है। जैसे (1) भाषा- महाराष्ट्री, शौरसैनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी। (2) विभाषा - शाकारी, चाण्डाली, शाबरी, आभीरिकी और शाकी (शाखी)। (3) अपभ्रंश- ब्राचड, लाटि आदि 27 प्रकार हैं। आ.हेमन्द्र ने इसे शौरसैनीवत् कहा है। (4) पैशाची- कैकेयी, शौरसेनी और पाञ्चाली। भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में सात प्रकार के प्रान्तों का उल्लेख करके उनके नामों पर विभाग किया है (17-48)- 1. मागधी, 2. अवन्तिजा, 3. प्राच्या, 4. शौरसेनी, 5. अर्धमागधी, 6. बालीका, 7. दाक्षिणात्या (महाराष्ट्री)। मृच्छकटिक आदि नाटकों में इनके प्रयोग देखे जा सकते हैं। इन सभी भेदप्रभेदों में से महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पैशाची में तथा इनके क्रमश: 4 उपभागों में (जैन महाराष्ट्री, जैन शौरसेनी, अर्धमागधी और चूलिका पैशाची में) पर्याप्त साहित्य उपनिबद्ध है, महाराष्ट्री प्राकृत को प्राय: सभी वैयाकरणों ने (चण्ड को छोड़कर) सामान्य प्राकृत के रूप में स्वीकार किया है। वैदिक संस्कृत (छान्दस्) के साथ प्राकृत का साम्य' छान्दस् संस्कृत में साहित्यिक प्राकृत भाषा की प्रवृत्तियाँ बहुतायत से मिलती हैं। जैसे - 1. अपवाद स्थल अधिक होने से दोनों में बहुलम्' सूत्र का प्रयोग। ('बहुलं छन्दसि' 2.4.39, 73, 'बहुलम्' हेम. 8.12) 2. प्राकृत में सर्वत्र और वैदिक संस्कृत में कहीं-कहीं द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग मिलता है। जैसे- वै0 मित्रावरुणा, अश्विना, इन्द्रावरुणा। प्राकृत में - नयणा, हत्था आदि। 392
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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