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________________ 4. वही 5. असीदिसदगाहाओ मोत्तूण अवसेससंबंधद्धापरिमाणणिद्देससंक्रमणगाहाओ जेण णागहत्थि आइरियकयाओ तेण 'गाहासदे असीदे' त्ति भणिदूण णागहत्थि आइरियेण पइज्जा कदा इदि केविवक्खाणाइरिया भणंति, तण्ण घडदे। क.पा. भाग 1,पृ. 183 जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश- भाग-2 पृष्ठ-41, तथा तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा भाग 2 पृ. 33-34 6. पुणो तेसिं दोण्हं पि पादमूले असीदिसदगाहाणं गुणहरमुह.. चुण्णिसुत्तं कयं / क. पा. प्रथमभाग, जयधवला पृ.183 7. वही, तथा देखें जैन साहित्य का इतिहास पं. कैलाशचन्द्रशास्त्री भाग-1, पृ0 28-30 8. तीर्थङ्कर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा खण्ड- 2, पृष्ठ - 30 प्राकृत और संस्कृत का तुलनात्मक विवेचन भाषाविज्ञान की दृष्टि से संसार की भाषाओं को प्रमुख रूप से 12 परिवारों में विभक्त किया जाता है - (1) भारोपीय, (2) सेमेटिक, (3) हेमेटिक, (4) चीनी, (5) यूराल अल्टाई (6) द्राविड, (7) मैलोपालीनेशियन, (8) बंटू, (8) मध्य अफ्रीका, (10) आस्ट्रेलिया (11) अमेरिका और (12) शेष भाषा परिवार। इन बारह भाषा परिवारों में भारोपीय परिवार के आठ उपभाषा परिवार हैं - (1) आरमेनियम, (2) बाल्टेरबोनिक, (3) अलबेनियम, (4) ग्रीक, (5) भारत-ईरानी (आर्य) (6) इटेलिक, (7) केल्टिक और (8) जर्मन (ट्यूटानिक)। इन आठ उपभाषा परिवारों में आर्य परिवार की तीन प्रमुख शाखाएँ हैं - ईरानी, दरद और भारतीय आर्य / संस्कृत और प्राकृत भाषाओं का कौटुम्बिक सम्बन्ध भारतीय आर्य भाषा से है अर्थात संस्कृत और प्राकृत का उद्गगम श्रोत भारतीय आर्य भाषा है। विकास क्रम की दृष्टि से भारतीय आर्य भाषा का सामान्य रूप से तीन कालों में विभक्त किया जा सकता है - (1) प्राचीन काल - (वैदिक काल या कथ्य प्राकृत भाषा काल - ई0 पू0 2000 से ई0 पू0 600) इसका स्वरूप हमें वैदिक या छान्दस् भाषा में मिलता है। (2) मध्य काल (संस्कृत एवं साहित्यनिबद्ध प्राकृत काल - ई0 पू0 600 से 1000 ई0 तक) इसका स्वरूप हमें संस्कृत एवं साहित्यिक प्राकृत परिवार में मिलता है। (3) आधुनिक काल (आधुनिक भाषा काल या प्राकृत का परिवर्तित रूप ई0 1000 के बाद) - इसका स्वरूप हमें हिन्दी, गुजराती आदि में मिलता है। आर्यभाषा के इस विकासक्रम से प्राकृत भाषा के तीन स्तर ज्ञात होते हैं - (1) प्राकृत का कथ्य रूप, (2) प्राकृत का साहित्यनिबद्ध रूप और (3) प्राकृत का परिवर्तित रूप। यहाँ जिस प्राकृत भाषा का विचार किया जा रहा है वह प्राकृत का साहित्यनिबद्ध रूप है जिसका उद्गम कथ्य भाषा से हुआ है और जो हिन्दी आदि भाषाओं की जननी है। क्या प्राकृत की प्रकृति संस्कृत है ? बोलचाल की भाषा सदा परिवर्तनशील होती है। उसमें जब साहित्य लिखा जाने लगता है तब उसे व्याकरण के नियमों से बाँध दिया जाता है। इस तरह बोलचाल की परिवर्तनशील-भाषा साहित्यिक भाषा होकर गतिहीन-सी हो जाती है। ऐसा होने पर भी बोलचाल की भाषा परिवर्तनशील बनी रहती है और कालान्तर में अपने परिवर्तनशील स्वभाव के कारण नवीन भाषाओं की जननी होती है। इस भाषाविज्ञान के नियमानुसार संस्कृत भाषा प्राकृत भाषा की जननी नहीं हो सकती है क्योंकि संस्कृत व्याकरण के नियमों से संस्कार की गई भाषा है। यह अवश्य है कि प्राकृत में संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों की बहुलता है। विशेषकर उन प्राकृत कृतियों में जो संस्कृत के विद्वानों द्वारा लिखी गई हैं और जिन्होंने उपलब्ध संस्कृत के प्राकृत व्याकरणों के आधार पर प्राकृत को सीखा है। उन्होंने पहले संस्कृत में विचार व्यक्त किया पश्चात् उसका प्राकृत रूप बनाया। यही कारण है कि जो प्राचीन जैनागम अथवा प्राचीन प्राकृत ग्रन्थ हैं उनमें प्राकृत की प्रकृति विद्यमान है। प्राकृत जनभाषा के रूप में वैदिक काल में विद्यमान थी जिसकी प्रवृत्तियां वैदिक भाषा (छान्दस्) में प्रचुर मात्रा में मिलती हैं। संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्, कल्पसूत्र, गृह्यसूत्र, अर्थशास्त्र, नाट्यशास्त्र आदि की भाषा परवर्ती संस्कृत से भिन्न तथा प्राकृत के तत्त्वों से परिपूर्ण है। अतः साहित्यिक प्राकृत को संस्कृतजन्य न कहकर उसे सहोदरा कहना अधिक न्यायसङ्गत होगा। 390
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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