SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यमनियमासन-प्राणायाम-प्रत्याहारधारणा-ध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि। खेदोद्वेगक्षेपोत्थान-भ्रान्त्यन्यमुद्रुगासङ्गैः / / युक्तानि चिन्तानि प्रपञ्चतो वर्जयेन् मतिमान् / / अद्वेषो जिज्ञासा शुश्रूषा श्रवणबोधमीमांसाः / / परिशुद्धा प्रतिपत्तिः प्रवृत्तिरष्टात्मिका तत्त्वे / / 17. योग., 21-40 18. योग., 41-48 19. योग., 49-57 20. योग., 52 21. योग., 54 22. योग., 57-151 23. योग. तथा ताराद्वात्रिंशिका, 19 24. योग., 57 25. योग., 152-159 26. योग., 160-167 27. योग., 168-176 28. योग., 177-185 29. समापत्ति (ध्यान या समाधि) के चार प्रकार हैं- सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार और निर्विचार / इन चारों का समावेश सम्प्रज्ञात-समाधि (सविकल्प-समाधि या सबीज-समाधि) में हो जाता है। निर्विचार-समापत्ति की निर्मलता से अध्यात्मप्रसाद और 'ऋतम्भराप्रज्ञा' प्राप्त होती है। इसके बाद असंप्रज्ञात-समाधि (निर्विकल्प या निर्बीज-समाधि) और तदनन्तर कैवल्य (केवलज्ञान) की प्राप्ति होती है। पतंजलि के अनुसार समाधि के दो भेद हैं- सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात / सम्प्रज्ञात समाधि को सबीज समाधि भी कहते हैं क्योंकि इसमें चित्त-संस्कार पूर्णत: नष्ट नहीं होते हैं। इसके चार प्रकार हैं-वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत / यह सम्प्रज्ञात समाधि असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति में कारणभूत है। देखें, योगदर्शन 1.17, 18, 46, 51 पूर्वविद् गुणधराचार्य - विरचित 'कसायपाहडं' पूर्वविद् आचार्य गुणधरदेव ने वि. पूर्व प्रथम शताब्दी में 'कषायपाहुड' नामक ग्रन्थ की रचना करके दिगम्बर जैन परम्परा के श्रुतज्ञान-विच्छेद को बचाने का प्रयत्न किया। यह दिगम्बर जैन परम्परा में सिद्धान्त प्रतिपादक सर्वमान्य आगम ग्रन्थ है क्योंकि भगवान् महावीर की अविच्छिन्न आचार्यपरम्परा से गुणधराचार्य को कषायपाहुड का ज्ञान प्राप्त हुआ था। द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञान के दृष्टिवाद नामक बारहवें अङ्ग ग्रन्थ के 14 पूर्वो में से ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्व के दसवें वस्तु अधिकार के अन्तर्गत 'पेज' (पेजदोसपाहुड या कम्मपयडिपाहुड या कसायपाहुड) नामक तृतीय पाहुड का विषय इसमें सूत्रात्मक शैली में निबद्ध है। इसका विषय 16000 पद प्रमाण हैं। इसमें मुख्य रूप से मोहनीय कर्म सम्बन्धी विवेचना है। यह ग्रन्थ 180 गाथाओं में रचित है तथा निम्न 15 अधिकारों में विभक्त है। - विषय विवेचन - (1) प्रकृति-विभक्ति अधिकार (पेज्जदोसविभक्ति) - प्रारम्भ के पाँच अधिकारों में केवल तीन गाथायें हैं। इनके पूर्व दो गाथायें ग्रन्थनाम, उद्गम स्रोत, गाथाओं एवं अधिकारों की संख्याबोधक हैं। कषायें राग-द्वेषरूप (पेज या पेज दोसरूप) हैं। इन राग-द्वेषों का विवेचन बारह अनुयोगों (स्वामित्व, काल, अन्तर, भंगविचय, सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम्, कालानुगम्, अन्तरानुगम्, भागाभागनुगम् और अल्पबहुत्व के द्वारा किया गया है। 2) स्थिति -विभक्ति - आत्मा की स्वाभाविक शक्तियों का आवरक कर्म पुद्गलात्मक है। कषायों की तीव्रता और मन्दता के अनुसार कर्मों की स्थिति (समय-मर्यादा) और अनुभाग (फलदान शक्ति) बन्ध होता है। कर्म अपनी स्थिति 386
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy