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________________ को ग्रहण करता है वह बाह्यनिवृत्ति है तथा उसमें जो आत्मप्रदेशों की रचना है वह आभ्यन्तर निवृत्ति है। अर्थात् बाह्यरूप में दिखने वाली चक्षु आदि को द्रव्येन्द्रिय कहते हैं तथा जिन आत्मप्रदेशों से देखने आदि की शक्ति प्राप्त होती है वह आभ्यन्तर इन्द्रिय है। आंख की पुतली आदि बाह्य उपकरण हैं। इन्द्रियों की संख्या पाँच है जो क्रमश: प्रतिनियत स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द का ज्ञान कराती हैं। मन को अतीन्द्रिय (ईसत् इन्द्रिय) कहा गया है जो पाँचों इन्द्रियों को नियन्त्रित करता है। मन सहित जीव को 'संज्ञी' कहते हैं। जिसको केवल स्पर्शन इन्द्रिय होती है उसे एकेन्द्रिय कहते हैं, जैसे भूमि, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतियाँ। इनमें चेतनता रूप जीवत्व पाया जाता है। इन्हें स्थावर जीव कहते हैं। स्थावर भी दो तरह के हैं - साधारण (जिनके एक शरीर के आश्रित अनेक जीव रहते हैं तथा नित्य निगोद और इतर निगोद) और प्रत्येक (ये सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित होते हैं)। जब एक जीव के आश्रित होकर कई स्वतन्त्र साधारण वनस्पति-कायिक जीव रहते हैं तो उसे 'सप्रतिष्ठित' कहते हैं तथा जिसमें अन्य साधारण वनस्पति जीव आश्रित होकर नहीं रहते हैं उसे अप्रतिष्ठित। कहते हैं। द्वीन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय के जीव 'त्रस' कहलाते हैं। लट, केंचुआ आदि दो इन्द्रिय,चींटी, खटमल आदि तीन इन्द्रिय, मक्खी, मच्छर आदि चार इन्द्रिय तथा पशु, देव, नारकी, मनुष्य आदि पाँच इन्द्रिय वाले जीव हैं। पाँच इन्द्रिय वाले कुछ मन सहित तथा कुछ मन रहित होते हैं। 1-4 इन्द्रिय वाले सभी जीव मन रहित (असंज्ञी) ही होते हैं। इन एकेन्द्रियादि में जीवों का अन्वेषण करना इन्द्रिय मार्गणा है। यहां भावेंन्द्रियाँ ही ग्रहण करना, द्रव्येन्द्रियां नहीं क्योंकि भावेन्द्रियों की अपेक्षा ही इन्द्रियपना स्वीकृत है, इसीलिये द्रव्येन्द्रियों के होते हुये भी 13वें तथा 14 वें गुणस्थान वालों (जीवन्मुक्त अर्हन्तों) को अतीन्द्रिय कहा गया है। अर्हन्तों के मतिज्ञानावरणादि सभी कर्मों का क्षय हो जाता है ,क्षयोपशम नहीं, भावेन्द्रियां मतिज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होती हैं, क्षय से नहीं। (3) काय मार्गणा जाति नामकर्म के साथ अविनाभावी सम्बन्ध रखने वाला त्रस और स्थावर नामकर्म होता है। उनके उदय से उत्पन्न हुई आत्मा की त्रस या स्थावर रूप अवस्था/पर्याय काय कहलाती है। पुद्गल स्कन्धों से काया की संरचना होती है। व्यवहार नय से जीवविपाकी जातिनामकर्म त्रस और स्थावर नाम कर्म का कार्य होने से जीव की पर्याय को भी काय कहा जाता है, शरीर पुद्गलविपाकी शरीर नामकर्म का कार्य होने से शरीर भी काय है। काया में जीवों की खोज करना कायमार्गणा है। यह 6 प्रकार की है - पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय। प्रथम पाँच भेद स्थावर के हैं,शेष त्रस काय हैं। सिद्ध जीव काय तथा कर्म दोनों से रहित होते हैं। शरीर के कई तरह से भेद किये जाते हैं - (क) दो भेद - बादर(स्थूल) और सूक्ष्म / स्थावर जीव बादर और सूक्ष्म दोनों प्रकार के होते हैं परन्तु त्रस जीव बादर ही होते हैं। (ख) पाँच भेद - औदारिक, वेक्रियिक, आहारक, तैजस् और कार्मण। (ग) दो भेद - साधारण और प्रत्येक। (घ) दो भेद - सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित। आठ प्रकार के जीवों के शरीर अप्रतिष्ठित (जिनके आश्रित बादर निगोद जीव नहीं रहते) होते हैं -पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, अर्हन्त केवलियों के शरीर, आहारक शरीर, देवों का वैक्रियिक शरीर और नारकियों का वैक्रियिक शरीर। इनमें प्रथम चार शरीर स्थावर एकेन्द्रियों के हैं, शेष चार त्रस पञ्चेन्द्रियों के हैं। सप्रतिष्ठित शरीर हैं- वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय (मनुष्यों के भी)। जिस प्रकार कबाडी काबड़ के भार को ढोता है उसी प्रकार यह संसारी जीव शरीररूपी कबाड़ को लेकर कर्मरूपी भार को ढोता है। संसारावस्था में कोई भी जीव एक क्षण भी शरीर के बिना नहीं रहता है। मरण होने पर भी तेजस् तथा कार्मण शरीर सदा रहते हैं। (4) योग मार्गणा' यहां मन, वचन और काय के परिस्पन्द को योग कहा है। योगों में स्थित जीवों की खोज करना योगमार्गणा है। समस्त आत्मप्रदेशों में कर्मों (कर्म-वर्गणारूप पुद्गलस्कन्धों को ज्ञानावरणादिरूप कर्म, नोकर्म रूप) को ग्रहण करने की शक्ति का नाम योग है। आत्मा में यह शक्ति (परिस्पन्द) पुद्गलविपाकी शरीरनामकर्म के उदय से मन वचन, काय / वचन, काय / काय से सहित संसारी जीवों को ही होती है। अत: जिनके पुद्गलविपाकी शरीरनामकर्म का उदय नहीं होता है उन्हें यह योग नहीं होता है। जैसे अयोगकेवली (14 वें गुणस्थानवर्ती) जीव को। यह आत्मा का स्वाभाविक गुण न होने 370
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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