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________________ को धारण करते हैं, फूल नहीं परन्तु फूलमती (द्वितीय पत्नी का नाम जिनसे सन् 1934 में विवाह हुआ था) से समलङ्कृत हैं, मोहन (कामदेव या कामदेव का वाण) नहीं, परन्तु जगन्मोहन हैं, गोकुल नहीं परन्तु गोकुलप्रसाद रत्न (पं0 जी के पिता का नाम) हैं, अमर (देव) नहीं, परन्तु अमरचन्द्र (पं0 जी के पुत्र) के जनक हैं, देव नहीं परन्तु देवद्वय (पं0 जी के दो पुत्र) से पूजित हैं, भगवान् ऋषभ नहीं परन्तु ऋषभ-क्षमा (पं0 जी की पुत्रवधू, भ0 ऋषभ द्वारा प्रतिपादित क्षमा गुण के धारक) से विभूषित हैं, राजनेता नहीं परन्तु राजनीति निष्णात हैं, पलट स्वभावी नहीं; परन्तु पलटूराम जी (पं0 जी के हितैषी) के भक्त हैं, भ0 गौतम बुद्ध नहीं परन्तु सिद्धार्थ (पं0 जी का पुत्र) के पिता हैं, रत्नाकर (समुद्र) नहीं परन्तु गुणरत्नों के आकर हैं, आकाश नहीं परन्तु शशिद्वय (इन्दु और शशि ये दो कन्यायें हैं, शशि पुत्रवधू भी है) से वेष्टित हैं, ब्रह्मचारी (ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी) हैं परन्तु मुक्तिरमा के चिरालिङ्गन के अभिलाषी हैं, कर्मठ (भ0 पार्श्वनाथ पर उपसर्ग करने वाला) नहीं, परन्तु कर्मठ हैं, त्यागी नहीं परन्तु रागद्वेष के त्यागी हैं (त्याग पर पदार्थ का होता है, स्व का नहीं। अत: कोई भी त्यागी नहीं है। परन्तु व्यवहार नय से रागद्वेष के त्यागी हैं।) (3) विविध गुणों के आकर - जैसे दीपावली में नगर विविध दीपमालाओं से सुशोभित होता है, वैसे ही उनके चैतन्य नगर में अनेक गुणमालाओं का सदा निवास है। इन्हीं गुणों के कारण आप गाढ़ान्धकार में दीपक हैं, विपत्ति में बन्धु हैं, दुःख रूपी समुद्र में नौका हैं और समस्याओं के सुलझाने में मन्त्रशक्ति सम्पन्न हैं / इनके अतिरिक्त, स्याद्वाद की साक्षात् प्रतिमूर्ति, समाज सुधारक, अन्तर्जातीय विवाह समर्थक, एकता के अभिलाषी, तेरह-बीस पन्थ में समझौतावादी, विद्वत्परिषद् के प्राण, दि० जैन सङ्घ के प्राण प्रतिष्ठापक, समुद्रवत् गम्भीर, सौम्यमूति, अनुशासन प्रिय, सादगी की मूर्ति, शान्ति पथ के पथिक, उदार एवं सरल हृदय, तर्क वागीश, संस्कृतप्राकृत आदि भाषाओं के उद्भट विद्वान्, शान्ति निकेतन (कटनी विद्यालय) के निकेतन, स्वाध्याय प्रेमी, कुशल प्रवक्ता, आगमज्ञ, विविध पत्र-पत्रिकाओं के मार्गदर्शक, जैन संदेश के सम्पादक, अनेक संस्थाओं के सक्रिय कार्यकर्ता, अनेक पुरस्कारों एवं सम्मान पत्रों से सम्मानित, देशप्रेमी, राजनीति निष्णात, छात्रों के हितैषी, सर्वधर्म समन्वयवादी, श्रावकधर्मप्रदीप ग्रन्थ के प्रदीपक, श्रावकाचार सारोद्धार ग्रन्थ के उद्धारक तथा अध्यात्म अमृत कलश स्वात्मबोधिनी की प्रश्नोत्तरी टीका के रचयिता हैं। (4) सप्त संख्या से सम्बन्ध - सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ की जन्म भूमि स्याद्वाद महाविद्यालय काशी में अध्ययन करने के कारण आप में सप्त संख्या का प्रवेश कर गया। फल स्वरूप आप सात प्रतिमाधारी, सप्त व्यसन त्यागी, सात बन्धुओं और पुत्रों से पुत्रवन्त, सात नयों के ज्ञाता, सप्तभङ्गी के व्याख्याता, सात स्थानों से विशेष सम्बन्धित (शहडोल, कटनी, मथुरा, सागर, मोरेना, काशी और कुण्डलपुर), सप्तम वर्ष में मातृ वियोगी, सात कर्मों (आयु कर्म छोड़कर) का प्रतिक्षण प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध करते हुए भी स्थिति और अनुभागबन्ध से विरक्त हो गए। (5) परिवार मंडल - जो धन्य कुमार जैसे अनुज सहयोगी से सतत परिवेष्टित हो, वह स्वयं क्यों न धन्य हो? जो नाम और गुणों से इन्दु और शशि नामक चन्द्रवदना कन्याओं का जनक हो, वह स्वयं आह्लादकता सुन्दरता, शीतलता आदि चन्द्र गुणों से क्यों न परिपूर्ण हो ? प्रमोद और विनोद से युक्त अमरचन्द, देवचन्द, देवकुमार जैसे सुरगणों का जो जनक हो, वह सिद्धार्थ का जनक क्यों न हो ? क्षमा, समता, ममता मयी मीना से जडित तथा शशि प्रतिबिम्बित गुणमाला से जिसके पुत्र समलङ्कृत हों, वह स्वयं क्यों न गुण-रत्नों की निधि हो? (6) कटनी और कुण्डलपुर निवास में हेतु - जैसे किसान फसल के तैयार होने पर कटनी करता है, वैसे ही ज्ञानार्जन के बाद रत्नत्रय रूपी फसल की कटनी करने के लिए कटनी में ही रमने वाले, अथवा ज्ञानावरणादि कर्मों की कटनी फटनी करके ज्ञानस्वभावी आत्मा की रक्षा करने हेतु कटनी को कार्यक्षेत्र चुनने वाले, अथवा दूसरों के अज्ञानान्धकार को काटने हेतु कटनी को निवास स्थान बनाने वाले, अथवा रत्नत्रय की करनी और कर्मों की कटनी में निश्चय-व्यवहार नय के द्वारा समन्वय करने की इच्छा से कटनी को ही कार्य क्षेत्र चुनने वाले गुरुवर्य ने कटनी को ही रणभूमि बनाया। जैसे कुण्डल से कान अलङ्कृत होता है, उसी प्रकार महावीर रूपी कुण्डल से अलङ्कृत सिद्ध क्षेत्र कुण्डलपुर का आश्रय ही सच्चे अलङ्कार का साधन है, ऐसा जानकर पीछे कुण्डलपुर में हो लवलीन हो गए। ऐसे स्वनाम धन्य वीतरागी, आपाततः विरोधाभासी परम पूज्य गुरुवर्य को मेरा शत शत वन्दन जिनके पदार्पण से न केवल उनका जन्म स्थल शहडोल ग्राम सुदर्शन है अपितु मैं भी शाहगढ़ निवासी होकर सुदर्शन नामधारी बड़कुल बन गया। 367
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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