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________________ है कि सङ्केतग्रह सामान्य विशिष्ट विशेष में होता है अन्यथा अर्थक्रिया नहीं बनेगी। यदि सामान्य में शक्ति-ग्रह मानोगे तो उसका विशेष के साथ कौन सा सम्बन्ध होगा? संयोग, तादात्म्य और समवाय सम्बन्ध बन नहीं सकते हैं। मीमांसक समवाय सम्बन्ध स्वीकार भी नहीं करते हैं। 5. मीमांसक यद्यपि स्वतः (प्रमाणान्तर-निरपेक्ष) प्रामाण्यवादी हैं किन्तु अप्रामाण्य परतः (प्रामाणान्तर सापेक्ष) मानते हैं क्योंकि अप्रामाण्य दोषों के कारण आता है। वेद स्वतः प्रमाण हैं क्योंकि वे अपौरुषेय हैं। इस सन्दर्भ में जैनों का कहना है कि जैसे अप्रामाण्य की उत्पत्ति 'परतः' (दोषों से) होती है उसी प्रकार प्रामाण्य की उत्पत्ति भी गुणों से होती है। अर्थात् प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति परतः होती है किन्तु 'ज्ञप्ति' अभ्यास दशा में स्वतः और अनभ्यास दशा में 'परतः' होती है। (तदुभयमुत्पत्तौ परत एव, ज्ञप्तौ तु स्वतः परतश्च) 'वेद अपौरुषेय हैं। इस सन्दर्भ में अनुमान प्रमाण प्रस्तुत करते हैं- वेद अपौरुषेय है क्योंकि स्मरण योग्य होते हुए भी उनके कर्ता का कभी भी स्मरण नहीं होता है, जैसे- आकाश। समीक्षा यदि वेद का कोई कर्ता होता तो वेदार्थ यज्ञ का अनुष्ठान करते समय यज्ञ-कर्ता उसके प्रामाण्य का निश्चय करने के लिए उसके कर्ता का स्मरण अवश्य करता। चूंकि बुद्धिमान् लोग विपुल परिश्रम तथा विपुल धन-व्यय साध्य, अग्निष्टोम, अग्निहोत्र आदि यज्ञों में नि:संशय प्रवृत्त होते हैं, अत: उनकी सत्यता में कोई संशय नहीं है। यदि उनकी सत्यता में संशय होता तो निश्चय ही उन यज्ञों में प्रवृत्त न होते। वेद भी, रामायण, महाभारत आदि की तरह एक वाक्यरचना है, अतः उसका कोई कर्ता अवश्य होना चाहिए, भले ही हमें आज उसका स्मरण न हो। ऐसी बहुत सी रचनाएँ हैं जिनके कर्ता का हमें स्मरण करने पर भी पता नहीं चलता है, फिर भी वे किसी न किसी की रचना मानी जाती हैं। कर्ता का स्मरण न होने मात्र से 'वेद अपौरुषेय हैं' यह कथन असङ्गत है। आप कैसे कह सकते हैं कि वेद के कर्ता का स्मरण नहीं होता? क्या एक पुरुष को स्मरण नहीं होता अथवा सभी पुरुषों को स्मरण नहीं होता? एक असर्वज्ञ पुरुष के स्मरणाभाव से वेद के कर्तृत्वाभाव को नहीं कहा जा सकता। यदि सभी व्यक्तियों की तीनों कालों में स्मरण 'स हि रुद्रं वेद-कर्तारम्' इस वाक्य से रुद्र का वेद कर्तृत्व-सिद्ध होता है। पुराणों में वेद का कर्ता ब्रह्मा को बतलाया गया है। न्याय दर्शन में ईश्वर को वेद का कर्ता कहा गया है। ऐसी स्थिति में 'वेद का कोई कर्ता नहीं है ऐसा कैसे कहा जा सकता है? स्मृति पुराण आदि की तरह वेद की कई शाखाएँ हैं- तैत्तिरीय, माध्यन्दिन आदि। यदि वेद अपौरुषेय होते और उनमें कथित शब्द नित्य होते तथा उनका धर्म भी प्रामाणिक होता तो ये शाखाएँ कैसे पल्लवित होती? इस अर्थभेद के कारण शंका होती है कि किसका कथन प्रामाणिक है और किसका अप्रामाणिक? किञ्च वेद-वाक्यों का वस्तुत: एक ही प्रकार का अर्थ नहीं है, जैसे 'स्वर्गकामो अग्निहोत्रं जुह्यात्' इसका दूसरा अर्थ भी सम्भव है- अग्निहः = कुत्ता, औत्र = मांस, जुह्यात् = खावे। कुत्ता मांस खावे, यह दूसरा अर्थ आपको भी अनुचित है। वेद के सायण आदि व्याख्याकारों में भी अर्थ-भेद देखा जाता है जबकि आप शब्द को एक, व्यापक और सामान्य को विषय करने वाला मानते हैं। इस कथन के साथ आपकी सङ्गति कैसे बैठेगी? अविश्वसनीय पुरुष के कथन पर कोई विश्वास नहीं करता और कहने पर प्रवृत्ति भी नहीं करता। आपका कहना है कि वेद-वाक्य विधि रूप (प्रेरक) हैं, अत: यदि उन वेद-वाक्यों में प्रामाणिकता नहीं होती तो कोई भी व्यक्ति यागादि में प्रवृत्त नहीं होता। केवल अपौरुषेय कहने से प्रवृत्ति नहीं बनेगी। जब तक उसके वक्ता के वचनों का प्रमाण सिद्ध न हो। त्रिकालज्ञ, सर्वज्ञ ही पूर्ण प्रामाणिक हो सकता है और आप वेद-वाक्य सर्वज्ञ द्वारा रचित नहीं मानते, अत: उसे स्वतः प्रमाण भी कैसे कहा जा सकता है? वेद विहित यज्ञादि से मिलने वाला स्वर्गादि फल भी अदृश्य ही है। अत: वेदों को अपौरुषेय और स्वतः प्रमाण कहना सर्वथा अनुचित है। 'नाग्निहोत्रं स्वर्गसाधनं हिंसाहेतुत्वात्। अग्निहोत्र को वेद में स्वर्ग का साधन बतलाया गया है जबकि इसमें पशु-हिंसा होती है। पशु-हिंसा होने से यह धर्म कैसे हो सकता है? यदि 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' (वेद विहित हिंसा हिंसा नहीं होती है) ऐसा कहा जाएगा तो खारपटिकों का यह कथन कि धनवानों का वध करना चाहिए क्योंकि धनवान् बहुत अधर्म करते हैं। यहाँ भी धनवानों के वध को हिंसा नहीं कहा जा सकेगा। अत: जैसे धनवानों के वध से हिंसा नहीं होती है उसी प्रकार आपका भी कथन हिंसा परक होने से अनर्थ मूलक है। 'धनवानों की हिंसा करने से स्वर्ग मिलता है यह कथन वेद-विहित नहीं होने से हिंसा है और अग्निहोत्र विहित हिंसा वेद-विहित होने से स्वर्ग प्रापक है- ऐसा आपका कथन 365
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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