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________________ शीत से मुरझाये हुए कमलों को देखकर भगवान् महावीर संसार की असारता को जानकर विरक्त हो जाते हैं (10.1, 2) / इस तरह वीरोदय काव्य में शिशिर ऋतु का पृथक् सङ्केत करते हुए छहों ऋतुओं का सुन्दर एवं अभिनव कल्पनाओं से समन्वित चित्रण किया है। यह ऋतु वर्णन बलात् सन्निविष्ट नहीं किया गया है अपितु कथानक के अनुसार यथाप्रसङ्ग आया है। किसी भी दृष्टि से संस्कृत के लब्धप्रतिष्ठित कवियों के ऋतुवर्णन से यह ऋतुवर्णन कमजोर नहीं है सभी ऋतुओं का वर्णन सभी महाकाव्यों में प्राय: नहीं मिलता है। इस ऋतुवर्णन को देखने से कवि का ऋतुओं से प्रेम, उनका सूक्ष्म निरीक्षण ज्योतिषशास्त्र एवं कामशास्त्र का परिज्ञान, एक ही विषय को विभिन्नरूपों में प्रस्तुत करने की कल्पना शक्ति, श्लिष्ट पदावली का प्रयोग, रसाभिव्यक्ति की क्षमता आदि का पता चलता है। पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य-सम्पादित न्यायकुमुदचन्द्र का सम्पादन वैशिष्ट्य ग्रन्थ परिचय भट्टाकलङ्कदेवकृत लघीयस्त्रय और उसकी स्वोपज्ञविवृत्ति की विस्तृत व्याख्या का नाम है 'न्यायकुमुदचन्द्र'। न्यायकुमुदचन्द्र एक व्याख्या ग्रन्थ होकर भी अपनी महत्ता के कारण स्वतन्त्र ग्रन्थ ही है। इसमें भारतीय दर्शन के समग्र तर्क-साहित्य एवं प्रमेय-साहित्य का आलोडन करके नवनीत प्रस्तुत किया गया है। तार्किक-शिरोमणि प्रभाचन्द्राचार्य ने निष्पक्ष भाव से वात्स्यायन, उद्योतकर आदि वैदिक तार्किकों के और धर्मकीर्ति आदि बौद्ध तार्किकों के मतों का विवेचन करके उनके ही ग्रन्थों का आधार लेकर खण्डन निष्पक्षता से किया है। साथ ही जैनाचार्यों के मन्तव्यों का प्रस्तुतीकरण किया है। जैन सिद्धान्तों के सन्दर्भ में उठने वाली सूक्ष्म से सूक्ष्म समस्याओं को उठाकर उनका तार्किक शैली में विशद समाधान प्रस्तुत किया है। तर्कशास्त्र वह शास्त्र है जो अतीत, अनागत, दूरवर्ती, सूक्ष्म और व्यवहित अर्थों का ज्ञान कराता है। तर्कशास्त्र का विशेषतः सम्बन्ध अनुमान प्रमाण से है। परन्तु कभी-कभी इन्द्रियप्रत्यक्ष और आगम की प्रमाणता में सन्देह होने पर तर्क के द्वारा ही उस सन्देह का निवारण किया जाता है। इस शैली का आश्रय लेकर परवादियों के प्रायः सभी सिद्धान्तों की समीक्षा न्यायकुमुदचन्द्र में की गई है। जिस प्रकार प्रभाचन्द्राचार्यकृत प्रमेयकमलमार्तण्ड-प्रमेयरूपी कमलों का विकास करने के लिए मार्तण्ड (सूर्य) है उसी प्रकार न्यायकुमुदचन्द्र भी न्यायरूपी कुमुदों का विकास करने के लिए चन्द्रमा है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि न्यायकुमुदचन्द्र भट्टाकलङ्ककृत लघीयस्त्रय और उसकी स्वोपज्ञविवृति की व्याख्या है। लघीयस्त्रय में प्रमाणप्रवेश, नयप्रवेश और प्रवचन प्रवेश इन तीन छोटे-छोटे प्रकरणों का संग्रह है। प्रमाणप्रवेश में चार परिच्छेद हैं, नयप्रवेश में एक तथा प्रवचनप्रवेश में दो। इस तरह लघीयस्त्रय में कुल सात परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद के प्रारम्भकी दो कारिकाओं पर, पञ्चम परिच्छेद की अन्तिम दो कारिकाओं पर, षष्ठ परिच्छेद की प्रथम कारिका पर और सप्तम परिच्छेद को अन्तिम दो कारिकाओं पर विवृति नहीं है, शेष पर है। विवृति में दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, वार्षगण्य और सिद्धसेन के ग्रन्थों से वाक्य या वाक्यांश लिए गए हैं। (न्यायकुमुद प्रस्तावना, प्र.भा.,पृ.5-7) जैनदर्शन में स्वामी समन्तभद्र ( ई0 2री शता0 ) को जैन तर्क विद्याकी नींवका प्रतिष्ठापक माना जाता है। पश्चात् सिद्धसेन दिवाकर (वि0 सं0 625 के आसपास )को जैन तर्क का अवतरण कराने वाला और आचार्य भट्टाकलङ्क (ई07-8 शता0) को जैन तर्क के भव्यप्रासाद को संस्थापित करनेवाला माना जाता है। अकलङ्क द्वारा संस्थापित सिद्धान्तों का आश्रय लेकर परवर्ती जैन न्याय के ग्रन्थ लिखे गए। आचार्य विद्यानन्द ( ई0 9वीं शता0) ने इस तर्कविद्या को प्रौढ़ता प्रदान की ओर आचार्य प्रभाचन्द्र (ई0 980-1065) ने जैन तर्कविद्या की दुरूहता को बोधगम्य बनाया। प्रशस्तपादभाष्य, व्योमवती, न्यायभाष्य, न्यायवातिक, न्यायमंजरी, शाबरभाष्य, श्लोकवार्तिक, बृहती, प्रमाणवार्तिकालङ्कार, तत्त्वसंग्रह आदि जैनेतर प्रौढ़ तर्क ग्रन्थों का गहन अध्ययन करके आचार्य प्रभाचन्द्र ने उनकी ही शैली में प्रबलयुक्तियों में उनके सिद्धान्त का परिमार्जन किया है। इस तरह जैन तर्क शास्त्र में नवीन शैलीको जन्म देकर न्यायकुमदचन्द्र जैसे ग्रन्थ लिखकर व्योमवती जैसे प्रौढ ग्रन्थों की कमी को पूरा किया है। सम्पादन और प्रकाशन योजना / माणिकचन्द्र दि0 जैन ग्रन्थमाला के मन्त्री पं० नाथूराम जो 'प्रेमी' की इच्छा से प्रेरित होकर न्यायाचार्य, न्यायदिवाकर, जैनप्राचीन न्यायतीर्थ आदि उपाधियों से विभूषित पं0 महेन्द्रकुमार शास्त्री जो श्री स्याद्वाद दि0 जैन 362
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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