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________________ ग्रीष्म काल में पृथिवी-पुत्र वृक्ष जलकर नष्ट से हो गए हैं उनको खोजने के लिए दुःखित हुए मेघ वर्षा के बहाने आंसू बहाते हुए बिजली रूप दीपकों को लेकर मानो इधर-उधर खोज रहे हैं - वसुन्धरायास्तनयान् विपद्य निर्यान्तमारात्खरकालमद्य। शम्पाप्रदीपैः परिणामवार्द्राग्विलोकयन्त्यम्बमचोऽन्तरार्द्राः / / 4/11 मेघ क्यों वर्षा कर रहे हैं ? (4.11-12) कमल क्यों नष्ट हो गए हैं ? (4.15) वियोगिनियों पर कामदेव का क्या प्रभाव है ? (4.16), समुद्र के जल की वृद्धि क्यों हो रही है ? (4.23-24), झूले पर झूलती हुए चन्द्रमुखी नायिकायें ऊपर की ओर और नीचे की ओर क्यों आ रही है ? (4.22) रात्रि और दिन में सदा अन्धकार रहने पर दिन और रात का बोध कैसे होता है (4.25) आदि के सम्बन्ध में मनोहारि उत्प्रेक्षायें की गई हैं। वर्षा ऋतु को एक कमनीया नायिका के रूप में कवि ने चित्रित किया है (4.10) / वर्षाकाल में कामदेव शीतलजल कणों के भय से ही मानो पति वियोग से संतप्त अङ्गनाओं के अन्तरङ्ग में प्रवेश करके उन पर अपना प्रभाव प्रदर्शित कर रहा है। (4) शरदऋतु (21-1-20) भगवान् महावीर के निर्वाण काल (कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि) के अन्तिम प्रहर में शरद ऋतु का वैभव नवोढा नायिका की तरह शोभायमान था (21,3), कवि ने यहाँ कल्पना की है कि सर्वजनवल्लभ भगवान् महावीर जब शिवलक्ष्मी(मुक्तिरमा) को वरण करने के लिए उद्यत थे तो उस महोत्सव को देखने के लिए ही मानो शरद् ऋतु धरातल पर अवतीर्ण हुई (21.1) / आश्विन और कार्तिक मास में सूर्य जब कन्या और तुला राशि में रहता है, तब शरद् ऋतु का काल माना जाता है (21.11,20) / इस शरद् ऋतु में सरोवर का जल और आकाशतल एक जैसा हो जाता है (21.7) / आकाश में तारागण मोती के समान और चन्द्रमा दीपक के समान सुशोभित होने लगते हैं (21.4,9) / जल निर्मल हो जाता है (21.4) / मयूर का बोलना बन्द हो जाता है (21.5) / पृथिवी कीचड़ से रहित हो जाती है और कमल खिल जाते हैं (21.6) / साठी धान्य पक जाती है और आकाश बादलों से रहित हो जाता है (21.3) / कृषक अपने घरों में धान्य लाते हैं और खलिहानों में उसे रखते हैं (21.12) कामोद्दीपक सप्तपर्ण और वृक्षों को पुष्प सुगन्धि से युक्त शारदीय हवायें बहने लगती हैं, कमल और कमलिनियों का विकास हो जाता है (21.15) / प्रिया की याद में पथिकों की स्थिति डंवांडोल हो जाती है (21.15) / कामदेव का सर्वत्र साम्राज्य फैल जाता है (21.18,19) / कवि की कुछ अद्भुत कल्पनायें दर्शनीय हैं / जैसे - यह शरद् ऋतु योगियों की सभा के समान आचरण वाली है - विलोक्यते हंसरवः समन्तान्मौनं पुनर्भोगभुजो यदन्तात्। दिवं समाक्रामति सत्समूहः सेयं शरद्योगिसभाऽस्मदूहः। 21.5 'मेघों की गम्भीर वाणी को जीतने वाले हंसों के शब्दों से हम पराजित हो गए हैं।' ऐसा सोचकर उदास हुए मयूर गण अपने शरीर के पंखों को उखाड़-उकाड़कर फेंक रहे हैं। जिताजिताम्भोधर सारभासां रुतैरतामी पततामुदासा। उन्मूलयन्ति स्वतनूरुहाणि शिखावला आश्विनमासि तानि॥ 21.11 सूर्य इस ऋतु में उत्तरायण से दक्षिणायन क्यों हो जाता है ? परिस्फुरत्षष्ठिशरद् धराऽसौ जाता परिभ्रष्ट पयोधरा द्यौः / इतीव सन्तप्ततया गभस्तिः स्वयं यमाशायुगयं समस्ति॥ 21.3 अर्थ - पृथ्वी रूपी स्त्री को साठ वर्ष (साठी धान्यवाली) की देखकर तथा द्यौ नाम की स्त्री को भ्रष्ट पयोधरा देखकर ही मानो सूर्य सन्तप्त चित्त होकर स्वयं यमपुर (दक्षिणदिशा) जाने के लिए तत्पर है। सूर्य ने सिंह राशि को छोड़कर कन्या राशि में क्यों प्रवेश किया ? स्मरः शरद्यस्ति जनेषु कोपी तपस्विनां धैर्यगुणो व्यलोपि। यतो दिनेशः समुपैति कन्याराशिं किलासीमतपोधनोऽपि॥ 21.13 अर्थ - तपस्वियों के भी धैर्य को छुड़ाने वाला असीम तपस्वी एवं प्रचुर ताप को धारण करने वाला भी यह सूर्य इस शरद ऋतु में सिंह राशि (सिंह वृत्ति) को छोड़कर कन्याराशि (कन्याओं के समूह) में जा रहा है। यह बड़े आश्चर्य की बात है। (5-6) हेमन्त ऋतु और शिशिर ऋतु (9.18-45, 10.1,2) 360
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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