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________________ उभय स्वभाव मानोगे तो युगपत् उसे सुख-दुःख का अनुभव होना चाहिए। परन्तु ऐसा अनुभव में नहीं आता। इसी प्रकार अनित्य पक्ष में भी सुख-दुःखादि की उचित व्यवस्था सम्भव नहीं है क्योंकि एकान्त क्षणिक पक्ष में कार्य-कारणभाव नहीं बनता और कार्य-कारणभाव के अभाव में सुख-दुःखादि निर्हेतुक होनेपर अभाव से भाव की उत्पत्ति, भाव का विनाश, कृतनाश, अकृतागम आदि नानाविध दोष आवेंगे / इस तरह सभी व्यवस्था गड़बड़ हो जावेगी। अतः जीव को सर्वथा नित्य या अनित्य न मानकर परिणामस्वभावी (उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य) मानना चाहिए। आत्मा को परिणामी स्वभाव मानने से उसे शरीर-प्रमाण भी माना गया है, न सर्वगत और न अणु मात्र। इसी तरह प्रकरणवश ग्रन्थकार नित्यवादियों के खण्डन-प्रसङ्ग में ज्ञान-ज्ञानवान् के एकान्तभेद और प्रधान (प्रकृति) के बन्ध मोक्ष का खण्डन,16 करते हुए आत्मा के बन्ध-मोक्षरूप परिणाम की सिद्धि करते हैं। किञ्च, नित्यपक्ष में व्यवहारलोप और सन्तान की अपेक्षा व्यवहार मानने पर उसका भी खण्डन किया गया है। इसी प्रकार एकान्त क्षणिकवादी बौद्धों का खण्डन करते हुए कार्यकारणभाव की अनुत्पत्ति, अभाव से भाव की अनुत्पत्ति, कारण से कार्य की उत्पत्ति मानने पर अन्वयसिद्धि का प्रसङ्ग, कारणनाश-कार्योत्पाद को युगपत् स्वीकार करने पर दोष, प्रतीत्यसमुत्पाद का खण्डन, कारण के सत्तामात्र से कार्योत्पाद का खण्डन, द्वितीय क्षण में कार्य की कारणसापेक्षता का खण्डन, कार्यकारण की स्वभावविशेष कल्पना का खण्डन, कारणवैशिष्ट्य का अयोग, उपादान सहकारिकारणों से भी वैशिष्ट्यसिद्धि का अभाव, अनादिवैशिष्ट्य का खण्डन, उपादानक्षण की विशिष्टस्वभावता का खण्डन, प्रत्यक्षानुपलम्भ आदि के द्वारा कार्य-कारणभाव के निश्चय का अभाव, कारण की सत्तामात्र से कार्य मानने पर अतिप्रसङ्ग, अर्थक्रियाविरोध, कार्य में कारणधर्म के नियमन का अभाव, वासना से भी कार्य-कारणभाव की अनुत्पत्ति, सुखादियोग का अभाव आदि विषयों का निरूपण किया गया है। इसके अतिरिक्त इसी अधिकार में द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु की सिद्धि, केवल भेदवादी बौद्धों और केवल अभेदवादी नैयायिकों के मत का खण्डन, द्रव्य और पर्याय में कथञ्चित् भेदाभेद की सिद्धि, आत्मा के सर्वगतत्त्व का निराकरण, आत्मस्थ होकर ही ज्ञान वस्तु को प्रकाशित करता है इसकी सिद्धि, आत्मा के शरीरप्रमाण की सिद्धि, केवलज्ञान के सर्वगतत्त्व का आत्मा के अणुमात्र का खण्डन, आत्मा के सप्रदेशत्व की सिद्धि, आत्मा की नित्यानित्यता की व्यवस्था, अन्वयव्यतिरेक से वस्तु के परिणामित्व की सिद्धि, बौद्धों के द्वारा स्वीकृत निर्विकल्पक प्रत्यक्षज्ञान का खण्डन, और सविकल्पकज्ञान की सिद्धि आदि विविध विषयों की चर्चा की गई है। कर्तृत्वद्वार जीव के ज्ञातृत्व को सिद्ध करने के बाद उसके कर्तापने को 35 गाथाओं ( 546-580) द्वारा सिद्ध करते हुए सर्वप्रथम तद्विषयक अनुमान और लोक-व्यवहार को हेतु रूप से उपस्थित किया है।" यहाँ बतलाया है कि जीव अपने कर्म फल को भोगने के कारण अपने कर्मों का स्वयं कर्ता है। यहाँ स्वकर्म फल भोगरूप हेतु स्वरूपासिद्ध नहीं है क्योंकि ऐसा न मानने पर लोकविरोध, युक्तिविरोध, सर्वज्ञोपदेशविरोध आदि दोष आवेंगे। आगे लोकविरोध को बतलाते हुए लिखा है- किसी जीव को सुखी अथवा दुःखी देखकर लोक में कहा जाता है कि वह अपने कर्म-फल को भोग रहा है। यह कथन 'प्रत्येक वट में यक्ष रहता है' इस वाक्य की तरह मिथ्यालोकप्रवाद नहीं है क्योंकि नानारूप सुख-दुःख का अनुभव निर्हेतुक नहीं हो सकता, आदि। इसी प्रकरण में स्वभाववाद, एकान्त नियतिवाद, यदृच्छावाद, देववाद आदि वादों का खण्डन, जीव के सुखाभिलाषी होने पर भी दुःखकारी कर्मों को करने का स्पष्टीकरण, इतरेतराश्रय दोष को दूर करते हुए कर्म और मिथ्यात्व के उद्भव की व्यवस्था, कर्म के कृतक होने पर भी प्रवाह रूप से अनादिता, कर्म के अनादि होने पर दृष्टान्तीभूत काल की अनादिता आदि विषयों की सयुक्तिक चर्चा की गई है। भोक्तृत्वद्वार जीव के कर्तृत्व को सिद्ध करके ग्रन्थकार इस प्रकरण में 25 गाथाओं ( 581-605) द्वारा जीव के भोक्तृत्व, 143 गाथाओं ( 606-748) द्वारा जीवकर्मसंयोग और 389 गाथाओं (749-1137 ) द्वारा भावेधर्म का प्ररूपण करते हैं जिससे यह भोक्तृत्वद्वार बहुत विशाल हो गया है। सर्वप्रथम ग्रन्थकार अनुभव लोक और आगमप्रमाण के द्वारा जीव के भोक्तृत्व को सिद्ध करते हुए भोक्तृत्व के न स्वीकार करने पर दूषण देते हैं। इस के बाद कर्मविपाक के वेदनरूप आत्मपरिणति को ही भोक्तृता बतलाते हुए ग्रन्थकार लोक प्रसिद्ध उक्ति का स्पष्टीकरण करते हैं। यदि स्वकृत सातासाता 340
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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