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________________ 74. समवायाङ्गसूत्र 539-542 75. नन्दीसूत्र 53 76. विधिमार्गप्रपा, पृ0 56 77. तत्त्वार्थ0 1.20 पृ. 73 78. धवला 1.1.2, पृ0 103-104 79. जयघवला गाथा, 1, पृ. 118 80. अङ्गप्रज्ञप्ति गाथा 48-51, पृ0 267 81. स्थानाङ्गसूत्र 10.114 82. समवा० सूत्र 542-545 83. नन्दीसूत्र 54 84. विधिमार्गप्रपा, पृ0 56. 85. तत्त्वार्थ0 1.20, पृ0 73. 86. धवला 1.1.2, पृ0 104-105 87. जयधवला गाथा 1, पृ0 119 88. अङ्गप्रज्ञप्ति गाथा 52-55, पृ0 267-268 89. स्थानाङ्गसूत्र 10.116 90. समवा0 सूत्र 546-549 91. नन्दीसूत्र 55 92. विधिमार्गप्रपा, पृ0 56 93. तत्त्वार्थ.1.20, पृ073-74 94. धवला 1.1.2, पृ0105-108 95. जयधवला गाथा 1, पृ0 119 96. अङ्गप्रज्ञप्ति गाथा 56-67, पृ0 268-270 97. स्थानाङ्गसूत्र 10.111 98. समवायाङ्गसूत्र 550-556 99. नन्दीसूत्र 56 100. विधिमार्गप्रपा पृ0 56 101. तत्त्वार्थ0 1.20, पृ0 74 102. धवला 1.1.2, पृ0 108 103. जयधवला गाथा 1, पृ0 120 104. अङ्गप्रज्ञप्ति गाथा 68-69, पृ0 270-271 105. स्थानाङ्ग सूत्र 4.131 106. वही, 10.92 107. वही 10.67-68 108. वही, 10.47 109. वही, 4.647 110. समवा० सूत्र 557-570 111. समवायाङ्ग के 46वें समवाय में दृष्टिवाद के 46 मातृकापदों का उल्लेख है परन्तु उनके नाम नहीं गिनाए हैं। 112. नन्दी सूत्र 57 113. विधिमार्गप्रपा पृ0 56 114. तत्त्वार्थ0 1.20, पृ0 74 115. धवला 1.1.2, पृ0 108-123 116. धवला 1.1.2, पृ0 113 117. जयधवला, गाथा 1, पृ0 23, 120-138 118. वही, पृ0 137 119. विस्तार के लिए देखें, वही, पृ0 126 120. वही पृ0 120-128 121. एदेसिं चोद्दसविज्जाट्ठाणाणं विसयपरूवणा जाणिय कायव्वा। जयधवला, गाथा 1, पृ0 23 122. अङ्गप्रज्ञप्ति गाथा 71-76 तथा आगे भी, पृ0 271-304 123. सुत्ते अट्ठासीदि अत्थाहियारा। ण तेसिं णामाणि जाणिज्जंति, संपहि विसिठ्ठवएसाभावादो। -जयधवला गाथा 1, पृ0 137 124. उत्तं च अट्टासी-अहियारेसु चउण्हमहियारणमत्थणिद्देसो। पढमो अबन्धयाणं विदियो तेरासियाण बोद्धव्वो।।76।। तदियो य णियइ-पक्खे हवइ चउत्थी ससमयम्मि।-धवला 1.1.2 पृ० 113 125. जेणेवं तेणेक्कारसण्हमंगाणं वत्तव्वं ससमओ। -जयधवला गाथा 1, पृ0 120 सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन् की दृष्टि में जैनदर्शन : एक समीक्षा सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन् के अध्ययन का क्षेत्र बहुत व्यापक और गहन रहा है। आपने अनुभव किया कि विश्व औद्योगिक और तकनीकी उन्नति करके भी असुरक्षित और असहाय है। वैज्ञानिक सफलताओं के कारण प्राचीन मूल्यों का ह्रास हो गया है तथा व्यक्ति आध्यात्मिक खोखलेपन का शिकार हो गया है। संसार के प्राणियों के इस वैचारिक खोखलेपन को दूर करने के लिए और परम सत्य का उद्घाटन करने के लिए राधाकृष्णन ने पूर्व और पश्चिम दोनों दार्शनिक विचारधाराओं का सम्यक् समन्वय किया। यह आपके उदार और सहिष्णु चिन्तन का परिणाम है। इनका चिन्तन कोरा चिन्तन नहीं है अपितु जीवन में उतारने का प्रयत्न भी है। इसीलिए इनके चिन्तन को धार्मिक अध्यात्मवाद' कहा जाता है। इन्होंने वेदान्त के निष्कर्षों को धार्मिक अनुभूति के आधार पर प्रस्तुत करके जीवन और दर्शन को जोड़ने का प्रयत्न किया है। आपकी दृष्टि में धर्म और मानवतावाद में कोई विरोध नहीं है। मानवीय जीवन के जिस रूप को 328
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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